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________________ व्याख्यान ३७ वां प्रभावना नामक द्वितीय भूषण . अनेकधर्मकार्येण, कुर्यात्तीर्थोन्नतिं सदा । प्रभावनाख्यं विज्ञेयं, द्वितीयं सम्यक्त्वभूषणम्॥१॥ भावार्थ:-धर्म के अनेकों कार्योंद्वारा निरन्तर तीर्थ की (जैनशासन की) उन्नति करना प्रभावना नामक समकित का दूसरा भूषण कहलाता है । इसका भावार्थ देवपाल राजा के प्रबन्ध से प्रत्यक्ष है देवपाल राजा की कथा अचलपुर में सिंह नामक राजा राज्य करता था । उस नगर में जिनदत्त नामक एक श्रेष्ठी रहता था जो राजा का अत्यन्त कृपाभाजन था। उसके देवपाल नामक एक सेवक था जो सदैव वन में श्रेष्ठी की गायों को चराया करता था। एक बार देवपालने वर्षाऋतु में नदी के किनारे पर श्रीयुगादि जिनेश्वर का सूर्य की कान्ति सदृश एक प्रकाशित बिंब देखा । उसने उसको एक घास की झोपड़ी में स्थापित कर पुष्पादिक से उसकी पूजा कर यह नियम ग्रहण किया कि-"आज से सदैव विना इन प्रभु की पूजा किये मैं भोजन कभी नहीं करूंगा।" ऐसा नियम कर वह अपने स्थान को लौट गया। एक बार अत्यन्त वर्षा होने से नदी भरपूर
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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