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________________ : ३०८ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : है ?" तब वह साध्वी उसको अपने गुरु के समीप ले गई। वहां वे पहले देरासर में हो कर गये । उस में हरिभद्रने श्री. वीतराग देव की मूर्ति को देख कर स्तुति की कि वपुरेव तवाचष्टे, भगवन् ! वीतरागताम् । न हि कोटरसंस्थेऽनौ, तरुर्भवति शाडवलम् ॥१॥ भावार्थ:--हे भगवन् ! तुम्हारे शरीर (मूर्ति) से ही तुम्हारा वीतरागपन जलकता है क्यों कि-यदि वृक्ष की कोटर में अग्नि मोजूद हो तो उस पर नवपल्लव दिखाई भी नहीं दे सकते। ___ इस प्रकार स्तुति कर वे गुरु के पास पहुंचे । गुरु को नमन कर उसने उस गाथा का अर्थ पूछा । गुरुने उसको उसका अर्थ बतलाया इस पर उसने अपनी पूर्वकृत प्रतिज्ञानुसार उनको गुरु बना दीक्षा ग्रहण की। जैन शास्त्रों का अभ्यास कर समकित को दृढ़ किया । अनुक्रम से गुरुने उसको योग्य समझ आचार्यपद प्रदान किया। उस हरिभद्रसूरिने आवश्यकनियुक्ति की बड़ी वृत्ति (टीका) कर उस में "चकिदुगं" इस गाथा का उत्तम प्रकार से विवरण (स्पष्टीकरण) किया । _____एक बार हरिभद्रसूरि के हंस और परमहंस नामक दो शिष्योंने, जो जैन दर्शन के अच्छे ज्ञाता थे, सूरि को कहा
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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