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________________ व्याख्यान २९ : : २६१ : ___ भावार्थ:-बिच्छु थोड़े से विष के होने पर भी अपने डंक को ऊपर की ओर उठा कर गर्व से चलता है जब किवासुकि नाग उससे हजारोंगुणा अधिक विष होने पर भी गर्व नहीं करता। इस सिद्धसेनने यह प्रतिज्ञा की थी कि-मुझे जो कोई वादविवाद में हरा देगा मैं उसीका शिष्य हो जाउंगा । एक बार वृद्ध वादी की प्रशंसा सुनकर उसको सहन करने में असमर्थ सिद्धसेनने पालकी में बैठ कर अपने अनेक छात्रों सहित भृगुपुर (भरुच) की ओर कूच किया। मार्ग में ही उसकी वृद्धवादी से भेट होगई । परस्पर वातचीत करते हुए सिद्धसेनने उसको वादविवाद करने को कहा । वृद्ध वादीने उसकी बात स्वीकार करते हुए कहा कि-मैं वादविवाद करने को तैयार हूँ लेकिन यहां पर कोई ऐसा सभ्य पुरुष दृष्टिगोचर नहीं होता कि जिस को मध्यस्थ कायम किया जासके और बिना किसी मध्यस्थ के जय पराजय का निश्चय क्यों कर हो सकेगा ? इस पर गर्व से उद्धृत सिद्धसेनने कहा कि-ये ग्वाल लोग ही मध्यस्थ होगे । गुरुने यह बात स्वीकार कर ग्वालों को मध्यस्थ बना कर सिद्धसेन को प्रथम वाद आरम्भ करने को कहा । तब सिद्धसेनने तर्क शास्त्र की अवच्छेदकावच्छिन्न प्रसंगवाले शब्दोंद्वारा कठोर संस्कृत वाणी को उच्च स्वर से बोलना आरंभ किया और अधिक देर तक बोलते रहे। इस से ग्वालोंने कहा कि-अरे! यह तो कोई
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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