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व्याख्यान २८ :
: २५१ : हूँ। इस प्रका चक्रभ्रमण वाद द्वारा अपने को देव और उसको श्वान स्थापित कर वह वापस अपने उपाश्रय को लौट गया । इस प्रकार चक्रदोष प्रगट करने से खेदित दिगंबराचार्यने, यह जान कर कि श्वेताम्बर के किसी साधुने आकर मेरी निन्दा की है, देवरि को एक श्लोक लिख कर भेजा किहंहो श्वेतपराः किमेष विकटाटोपाक्तिसंटंकितैः, संसारावटकोटरेऽतिविकटे मुग्धो जनः पात्यते । तत्त्वातत्त्वविचारणासु यदि वा हेवाकलेशस्तदा सत्यं कौमुदचन्द्रमंघ्रियुगलं रात्रिन्दिवं ध्यायत॥१
भावार्थ:-अरे श्वेताम्बरो! खोटे आडम्बरवाले वाक्यों के प्रपंचद्वारा तुम इन मुग्ध लोगों को अति विकट संसाररूपी अंधकूप के कोटर में क्यों डालते हो ? यदि तुम्हारी तत्त्व और अतत्व के विचार में लेश मात्र भी इच्छा हो तो तुम सचमुच रात्रीदिन कुमुदचन्द्र के चरणयुग्म का ध्यान धारण करो।
दिगम्बराचार्य द्वारा भेजे हुए इस श्लोक को पढ़ कर बुद्धिवैभव में चाणक्य से भी बढ़कर देवसूरि के शिष्य माणिक्य मुनिने निम्नस्थ श्लोक लिखा
x कस्त्वं ? अहं देवः । देवः को ? अहं । अहं कः ? त्वं श्वा । श्वा कः ? त्वम् । त्वं कः ? अहं देवः। इस प्रकार चक्रभ्रमणवाद समझना चाहिये ।