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________________ : २१६ : श्री उपदेशप्रासादभाषान्तर : . भावार्थ:--दो मुँहवाले' निरक्षरे, और लोहमतिवाले हे नाराय (तराजु) मैं तुझे कितना समझाउँ ? चरमुं के साथ स्वर्ण को तोलने के बनिस्बत तो पाताल में क्यों नहीं गया ? इस प्रकार अपनी निन्दा सुन अति क्रोधित हो राजा ने उस ग्रन्थ को जला दिया । धनपाल राजा के भय से और ग्रंथ के नाश से उद्वेग पाकर शोकातुर घर पहुंचा। वहां तिलकमंजरी नामक उसकी पुत्री ने पूछा कि-हे पिता ! आज तुम शोकातुर क्यों हो ? इस पर पंडित ने उसको सर्व वृत्तान्त कह सुनाया। पुत्री ने कहा कि-हे पिता ! चिन्ता न कीजिये । मेने उस समस्त ग्रन्थ को कंठाग्र कर रखा है । आप चाहें तो लिखलें । यह सुन कर अति प्रसन्न हो पंडितने उस ग्रन्थ को फिर से लिखा लिया और पुत्री के नाम के सरणार्थ उस ग्रन्थ का नाम भी तिलकमंजरी रखा। फिर राजा के भय से धनपाल अपने कुटुम्ब सहित अन्य ग्राम में जाकर रहेने लगा। एक बार भोज राजा की सभा में किसी पंडित ने आकर १ तराजू के दो पलड़े, राजा का बोलना कुछ और करना कुछ इस प्रकार दो मुँह । २ तराजू और राजा दोनों निरक्षर अर्थात् मूर्ख । ३ तराजू के लोह अर्थात् लोहे की मति-डांडी, राजा के लोह-लोभ की मति-बुद्धि । कीर्ति का अत्यन्त लोभ ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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