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________________ व्याख्यान २३: : २०९: हे राजा ! मांस में लुब्ध हुए ये राक्षस सदृश ब्राह्मण तुम को ऐसे यज्ञ की प्रशंसा कर कुमार्गानुगामी बनाते हैं। इस प्रकार पशुवध में कभी भी धर्म नहीं हो सकता; केवल महापाप ही होता है। शास्त्र में भी सच्चे यज्ञ का स्वरूप तो यह ही बतलाया है किसत्यं यूपं तपो ह्यग्निः, कर्माणि समिधो मम । अहिंसामाहुतिं दद्यादेव यज्ञः सतां मतः ॥३॥ भावार्थ:--सत्यरूपी यज्ञस्तंभ खड़ाकर, तपरूपी अग्नि जलाकर, उसमें कर्मरूपी समिध (लकड़ी) डालकर अहिंसारूपी आहुति देना यह सच्चा यज्ञ होगा एसा सत्पुरुषोंद्वारा माना गया है। स्वर्गः कर्तृक्रियाद्रव्यविनाशे यदि यज्विनाम् । तदादावाग्निदग्धानां, फलं स्याद् भूरि भूरुहाम्॥ भावार्थ:--यदि कदाच यज्ञकर्ता की क्रिया और द्रव्य के विनाश से यज्ञाचार्य को स्वर्गप्राप्ति हो सकती हो तो दावानल से जले हुए वृक्ष को बहुत फल मिलना चाहिये । निहतस्य पशोर्यज्ञे, स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते । स्वपिता यजमानेन,किं तु तस्मान्न हन्यते?॥५॥ १४
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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