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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : उसने उत्तर दिया कि " हे स्वामी! यहां मार्ग में तुरन्त की जन्मी हुई एक बालिका पड़ी हुई है जिस के शरीर से अत्यन्त दुर्गध प्रसारित हो रही है।" यह सुन कर राजा ने कहा कि-यह तो पुद्गल का परिणाम हैं। फिर उस बालिका को देख कर समवसरण में गया । श्री वीर प्रभु को प्रणाम कर देशना सुन कर अवसर मिलने पर उसने प्रभु से उस दुगंधवाली बालिका के पूर्वभव के वृत्तान्त को सुनाने की प्रार्थना की। प्रभुने कहा कि-यहां समीपवर्ती शालि नामक ग्राम में धनमित्र नामक श्रेष्ठी रहता था। उसके धनश्री नामक एक पुत्री थी । एक वार ग्रीष्मऋतु में श्रेष्ठीने उसके विवाह का प्रारंभ किया उस समय कोई मुनि गोचरी के लिये उसके घर पर आया जिसको बहराने के लिये श्रेष्ठीने अपनी पुत्री को आज्ञा दी। इस से वह मुनि को वहराने के लिये गई परन्तु कभी भी स्नान, विलेपनादिक द्वारा शरीर की सुश्रूषा नहीं करनेवाले उन महात्माओं के वस्त्रों से और शरीर में से स्वेद तथा मल आदि की दुगंध आने से उस धनश्रीने अपने मुख को फिरा लिया। विवाह का उत्सव होने से सर्व अंगों पर अलंकारों से श्रृंगारित, मनोहर सुगंधित अंगराग से विलेपित तथा युवावस्था के उदय से मत्त हुई उस धनश्रीने बिचार किया कि " अहो । निर्दोष जैनधर्म में स्थित यह साधुओ कदाच प्रासुक जल से स्नान करते हों तो उसमें क्या दोष है ? इस प्रकार उसने जुगु