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________________ व्याख्यान २० : : १८३ : दिया कि मुझे समृद्धि प्राप्त कराओं। इस पर उन्होने जवाब दिया कि - तेरी कुलदेवी के पास जा, वह तुझे समृद्धि प्रदान करावेगी । अतः श्रीधर कुलदेवी के पास जाकर अट्टम कर बैठ रहा। तीसरे दिन वह भी समृद्धि मांगने पर बोली कि - हे दुष्ट ! मेरे पास से शिघ्रतया भाग जा, तू तेरे घर के बाहर जिन जिन देवताओं की पूजा करता है उनके पास जा, वे तुझे समृद्धि देगें । यह सुन कर श्रीधरने गृहदेवी की आराधना की इस पर मन ही मन हँस कर वे आपस में कहने लगे । गणपतिने चन्डिका देवी से कहा कि हे चन्डिका ! तेरे भक्त को मनवांछित फल प्रदान कर । इस पर उसने उत्तर दिया कि इसको तो बस वह यक्ष मनोवांछित फल प्राप्त करायेगा क्योंकि देखिये यह उसको उच्चासन बैठाता है और सदैव यह मेरे पहिले उसीकी पूजा करता है । इस पर यक्षने कहा कि - इसको मनवांछित फल की प्राप्ति शासनदेवता करायेगें। इस प्रकार सर्व देवताओंने उसकी हँसी उड़ा कर उपेक्षा की तब वह शासनदेवी की आराधना करने लगा । शासनदेवीने उत्तर दिया कि - हे मूर्ख ! तूने यह क्या किया ? बड़ी भारी भूल की । अब भी विकथा और हास्य में तत्पर ऐसे कुदेवों को छोड़ कर देवताओ के देव, आठों कर्मों के क्षीण करनेवाले और कृपा के अवतार त्रिकाल ज्ञानी सर्वज्ञ की अर्चा कर कि जिससे दोनों भवमें सुखसम्पत्ति प्राप्त हो । यह सुन कर श्रीधरने वैसा ही किया। तब उसको आकांक्षा
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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