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________________ : १८० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तः अधिक आहार करने से उसके पेट में शूल उत्पन्न हुआ और उसकी व्यथा से उसी रात्री को उसका प्राणान्त हो गया । उस मंत्रीने तो घर जाकर थोड़ा थोड़ा पथ्य भोजन करने लगा और साथ ही साथ वमन तथा विरेचन भी लेने लगा अर्थात् भोजन पर अति आकांक्षा रखने के अतिरिक्त पथ्य भोजन करने से वह सुखी हुआ। इस दृष्टान्त का यह सार है कि-राजा और मंत्री के स्थान पर जीव हैं जिन में कई राजा जैसे जीव कुछ तपस्या आदि बाह्य गुण देख कर भिन्न भिन्न दर्शनों की आकांक्षा करते हैं वे राजा के समान बिना तृप्ति पाये ही मृत्यु को प्राप्त हो कर दुर्गति के भाजन होते हैं और जो स्याद्वाद-अनेकांत धर्म में निश्चल रहते हैं वे मंत्री के समान सुखी होते हैं । . इस प्रसंग पर निम्न लिखित एक और दूसरा दृष्टान्त हैसर्व देव की भक्ति करनेवाला श्रीधर श्रावक का दृष्टान्त गुणदोषापरिज्ञानात् , सर्वदेवेषु भक्तिमान् । यः स्यात्श्रीधरवत्पूर्वं, स तु नैवाश्नुते सुखम् ॥१॥ ___ भावार्थ:-विना गुण दोष के जाने हुए जो पुरुष देवों में प्रथमावस्था में श्रीधर समान भक्तिमान होता है, वह परिणाम में सुख नहीं पा सकता।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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