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________________ व्याख्यान १९ : : १७७ : कत्थय मइदुब्बलेण,तथाविहायरिय विरहओवावि। नेयगहणतणेण य, नाणावरणोदयेणं च ॥१॥ हेऊदाहरणसंभवे य, सइ सुट्ठ जं न बुज्झिज्झा । सवण्णुमयमवितह, तहावि तं चिंतए मइयं ॥२॥ भावार्थ:-किसी स्थान पर मति की दुर्बलता है ( मंदता से ), तथाविध आचार्य के अभाव से, ज्ञेय का ग्रहणपन यथार्थ नहीं होने से और ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से हेतु, उदाहरण आदि का संभव होते हुए भी सूत्र का यथार्थ ग्रहण न हो सके-बराबर समझने में न आवे तिस पर भी मतिमान् पुरुष को ऐसा ही विचार करना चाहिये कि-सर्वज्ञ का वचन अवितथ-निर्दोष ही है । कितने पदार्थ मात्र आगमगम्य ही होते हैं इस लिये वे पदार्थ हमारे जैसे प्राकृत जनों के प्रमाण की परीक्षा के लिये अगोचर हैं परन्तु वे पदार्थ आप्तपुरुषों द्वारा कहे हुए होने से सन्देह करने योग्य नहीं हैं। इति शंकाषणोऽधिकारः। इत्यब्ददिनपरिमितोपदेशप्रासादे द्वितीयस्तंमे एकोनविंशति तमम् व्याख्यानम् ॥ १९ ॥ १२
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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