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________________ : १२० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : है | आश्रवनिरोध ( संवर) का फल तप करने के लिये बल की प्राप्ति होता है । तप का फल कर्म निर्जरा है । कर्म निर्जरा से क्रिया की निवृत्ति होती है । क्रिया रहित होने से अयोगपन प्राप्त होता है। योग के निरोध से भव की परंपरा का नाश होता है और भवपरंपरा के क्षय से मोक्ष की प्राप्ति होती है, अतः विनय सब प्रकार के कल्याण का भाजन है । 19 इस प्रकार विनयगुण के लिये गुरुने बहुत उपदेश दिया परन्तु उद्धत शिष्य को तो वह उपदेश ऊलटा द्वेषरूप हुआ इसलिये गुरु तथा अन्य सब मुनियोंने उसकी उपेक्षा की । इससे क्रोधित होकर उसने प्रासुक जल में गुरु तथा अन्य मुनियों को मारने के लिये तालपुट विष मिला दिया और स्वयं भय के मारे वहां से भाग कर किसी अरण्य में जाकर सो रहा । उसमें दावानल के जलने से वह दुष्ट साधु रौद्र ध्यान से मृत्यु प्राप्त कर आखिरी नरक में गया । इधर सूरि आदि को उस जल को पीने से शासनदेवने रोक दिया । वह वासव नरक से निकल कर मत्स्यादि योनियों में पैदा हो कर अनेकों भवों में भटका । वह वासव हाल ही में कुछ कर्म की लघुता होने से राजकुमार हुआ है। अभी पूर्व किये हुए मानसिक ऋषिघात सम्बन्धी शेष रहे पाप के उदय से ऐसी दुर्दशा को प्राप्त हुआ है । हे मंत्री ! इस
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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