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________________ : ११० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : " द्रव्य साधुने भाव साधु से कहा कि - " अरे नंदिषेण ! तेरा अभिग्रह कहां गया ? इस नगर के बाहर एक ग्लान साधु अत्यन्त तृषाक्रांत पड़ा हुआ है उसका बिना वैयावृत्य किये तू क्यों कर खाने बैठता है ? यह सुन कर नंदिषेण मुनि उसका भिक्षापात्र दूसरे मुनि के पास रख कर यह ग्लान साधु के लिये प्रासुक जल लेने को निकला । उस देवताने देवशक्ति द्वारा सब घरों के पानी को अनेषणीय कर देने से नंदिषेण मुनि को कई घरों पर फिरना पड़ा । अन्त में एक घर से उसको शुद्ध जल मीला जिस को लेकर उस साधु के साथ नंदिषेण ग्राम बाहर ग्लान साधु के पास गया । उस ग्लान साधु को अतिसार की व्याधि थी, इस से नंदिषेण उसके शरीर को धोने लगा । उस समय उस देवने अत्यन्त दुर्गंधी फैलाई, परन्तु नंदिषेण उससे खेदित न हो कर विचार करने लगा कि अहो ! कर्म की गति विचित्र है, वह किसी को नहीं छोड़ता । इस प्रकार शुद्ध भावना भाते हुए वह उस ग्लान साधु को उसके कंधे पर ऊठा कर उपाश्रय की ओर ले जाने लगा । मार्ग में उस ग्लान साधुने बारंबार दस्त कर नंदिषेण के समस्त शरीर को विष्टा से भर दिया । तिस पर भी नंदिषेण को बिलकुल घृणा उत्पन्न नहीं हुई और उसको उसी दशा में उपाश्रय में ला कर विचार करने लगा कि - अरे ! मैं इस साधु को किस प्रकार रोगमुक्त करूंगा ? ऐसा
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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