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________________ व्याख्यान ९: ... : ९७ : - अहो ! मेरे देखते हुए भी ये पशु तुल्य पुरुष पशुधर्म का आचरण करते हैं । इस प्रकार विचार करते हुए वह अर्जुनमाली मन ही मन यक्ष को उपालंभ देने लगा किहे यक्ष ! सचमुच तू पत्थरमय ही देव है । इतने दिन तक मैने तेरी पूजा की जिसका मुझे वह फल मिला । उस समय यक्षने ज्ञानद्वारा यह सब जानकर और माली के वचनों से अत्यन्त क्रोधायमान हो कर उसने उसके देह में प्रवेश किया। बांधे हुए सर्व बंधनों को तोड़कर लोहे के मुद्गर को ऊठाकर उससे बंधुमती सहित छ ही मित्रों का चूरण बना दिया । तब से ही अर्जुन के शरीर में घुसा हुआ वह यक्ष हमेशा जब तक एक स्त्री सहित छ पुरुषों को नहीं मारता तब तक उसका क्रोध शान्त नहीं होता है । यह वृत्तान्त सुन कर उस नगर के राजा श्रेणिकने नगर के दरवाजे बन्द करा कर सर्व पुरवासियों को सूचित किया कि-जब तक वह अर्जुन सात पुरुषों को न मारते तब तक कोई भी नगर के बाहर न निकले। इस अवसर पर श्रीवीर प्रभु इस नगर के उद्यान में पधारे । सुदर्शन नामक महाश्रावक उनका आगमन सुनकर अत्यन्त आनन्दित हुआ और जिनेश्वर के वचनामृत का पान करने की इच्छा से उसके मातापिता से आज्ञा मांगने लगा कि-मैं जिनेश्वर को वन्दना करने के लिये जाना
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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