SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ९२ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : परन्तु यह असत्य है क्यों कि तुम वेद पद का सच्चा अर्थ नहीं जानते इसी से तुमको यह संशय उत्पन्न हुआ हैं। वेद में कहा है कि:-"विज्ञानधन एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्ये. वानुविनश्यति न प्रेतसंज्ञास्ति" विज्ञानघन के जीव इस पंच महाभूत से उत्पन्न हो कर फिर वापीस उन्हों पंच महाभूतों में ही विनाश को प्राप्त होता हैं इस लिये उनकी प्रत्ये परलोक संज्ञा नहीं होती । ऐसा अर्थ कर तुमने जीव का अभाव सिद्ध किया है, परन्तु वह अर्थ अयुक्त है क्यों कि विज्ञानघन का अर्थ जीव नहीं हैं परन्तु पांचों इन्द्रियां हैं। उससे होनेवाले घटादि पदार्थ का जो ज्ञान है वह घटादि के नाश होने पर उसके साथ ही साथ नाश को प्राप्त होता हैं, उनकी प्रेत्यसंज्ञा नहीं होती है ( इस पद का सर्व युक्तियों सहित व्याख्यान श्रीविशेषावश्यक से जाना जा सकता है ) इसी प्रकार है गौतम ! जिन प्रकार दूध में घी है, तील में तेल है, काष्ठ में अग्नि है, पुष्प में सुगन्ध है तथा चन्द्रज्योत्स्ना में अमृत है उसी प्रकार जीव भी देह में स्थित है। इस लिये जीव का होना सिद्ध है। ___ इत्यादि युक्तियुक्त जन्म मरण रहित भगवान के वचन सुन कर गौतम का संशय दूर हो गया और उसने पांचसो शिष्यों साथ भगवान के पास प्रव्रज्या अंगीकार की। फिर भगवान के मुंह से "उपजएई वा, विगमए वा, धुवए वा"उत्पन्न होता हैं, मरता है और निश्चल भाव है । इन तीन
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy