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________________ : ८२ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : भावार्थ:-हे सुन्दर नेत्रवाली स्त्री ! तू यथेच्छ खा और पी ! हे सुन्दर गात्रवाली ! यदि तेरी यह युवावस्था गई तो फिर वह तेरी नहीं रहेगी अर्थात् फिर तेरे को वापस नहीं मिल सकती क्यों कि.हे भीरु स्त्री! जो कुछ भी चला जाता है वह वापस नहीं आता और यह शरीर तो केवल मात्र महमान के समान (थोड़े समय तक रहनेवाला) है। . प्रथम श्लोक में शाक्यादि लिखा हुआ है इस लिये उस आदि शब्द से एकांत नय को अंगीकार करनेवाले सर्वे मिथ्यादृष्टि को समझना चाहिये । कहा भी है कि:जावइया वयणपहा, तावइया चेव हुंति नयवाया। जावइया नयवाया, तावइयं चेव मिच्छत्तं ॥१॥ भावार्थ:-जितनी वचनरचना है वे सब नयवाद है, और जितने नयवाद है उतने मिथ्यात्व के प्रकार हैं । अतः शाक्य मतवालों का तथा अन्य मिथ्यादृष्टियों का भी संग वर्जित हैं अपितु कुदृष्टि अर्थात् जिनका दर्शन (शासन) कुत्सित है-निंद्य है ऐसे कुदृष्टि तीन सो सठ प्रकार के हैं। आगम में उनके भेद इस प्रकार बतलाते हैं:असियसय किरियाणं, अकिरिवाईण होइ चुलसी उ अन्नाणिय सत्तट्ठी, वेणइयाणं च बत्तीसं ॥१॥
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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