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________________ व्याख्यान ७: :: ७९ : ढंक के शब्द सुनकर विचार करने पर उस सुदर्शना को बोध प्राप्त होने से बोली कि-हे श्रावक ! तूने मुझे ठीक प्रतिबोध दिया। मैं इस सम्बन्धि मिथ्यादुष्कृत का त्याग करती हूँ। इस प्रकार कह कर जमालि के पास जाकर उसको भी बोध करने लगी किन्तु उसको तो कुछ भी बोध नहीं हुआ इससे उसको छोड़ कर सुदर्शना भगवान के समीप गई। एक वार जमालिने चम्पा नगरी में आकर श्री महावीरस्वामी से कहा कि-हे जिन ! मेरे अतिरिक्त तुम्हारे समस्त अन्य शिष्य छअस्थरूप से ही बिहार करते हैं किन्तु मुझ को तो केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है इस से मैं तो सर्वज्ञ अरिहंत हो गया हूँ। यह सुनकर गौतमस्वामीने कहा कि-हे जमालि ! तू ऐसा असत्य भाषण न कर क्यों कि केवलज्ञानी का ज्ञान तो किसी स्थान पर स्खलना को नहीं प्राप्त होता इस से यदि तू केवली है तो मेरे प्रश्नों का उत्तर दे । यह लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? और ये सर्व जीव नित्य है या अनित्य ? यह सुनकर इसका उत्तर मालूम नहीं होने से जमालि मौन रहा और नियंत्रित सर्प के समान स्थिर हो गया। यह देख कर प्रभुने कहा कि-हे जमालि! छमस्थ साधु भी इन प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं वह इस प्रकार है-भूत, भविष्यत् और वर्तमान की अपेक्षा से यह लोक नित्य है और उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी काल की अपेक्षा से यह लोक अनित्य है, इसी प्रकार द्रव्य 11 ..
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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