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________________ से अपनी स्थिति में खड़ा है। अर्थात् इस लोकाकाश की यह स्थिति अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक भी अपनी इसी स्थिति में रहने वाला है। त्रिकाल स्थायी होने से यह विश्व शाश्वत है। लसदलोकपरिवेष्टितं , गणनातिगमानम् । पञ्चभिरपि धर्मादिभिः , सुघटितसीमानम् , विनय० ॥ १४६ ॥ अर्थ-यह लोकाकाश अगणित (असंख्य) योजन प्रमाण वाला है और चारों ओर अलोक से घिरा हुआ है। धर्मास्तिकाय आदि पंचास्तिकाय से इसकी मर्यादा नियत बनी हुई है ।। १४६ ।। विवेचन लोकाकाश का प्रमाण यह चौदह राजलोक स्वरूप लोकाकाश असंख्य योजन का है। इसकी गणना करना हमारे वश की बात नहीं है। फिर भी विशेष ज्ञान (अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान) के मालम्बन से इसके अन्त को देखा व जाना जा सकता है, परन्तु इस चौदह राजलोक के चारों ओर जो 'अलोक' रहा हुआ है, उसका तो कोई अन्त ही नहीं है। केवली की दृष्टि में भी वह अनन्त ही है। उसके अन्त को कोई पा नहीं सकता है। चौदह राजलोक के चारों ओर वह अनन्त स्वरूप में विद्यमान है । शान्त सुधारस विवेचन-५९
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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