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मात्र अर्थ और काम का ही पोषण करने वाले भी अनेक शास्त्र हैं, ऐसे कुशास्त्रों का त्याग करना चाहिये।
परिहरणीयो गुरुरविवेकी , भ्रमयति यो मतिमन्दम् । सुगुरुवचः सकृदपि परिपीतं , प्रथयति परमानन्दं रे ॥ सुजना० २११ ॥
अर्थ-जो मतिमन्द/मुग्धजनों को संसारचक्र में परिभ्रमण कराते हैं ऐसे अविवेकी गुरु का त्याग करना चाहिये और सद्गुरु का वचनामृत एक बार भी पीया है तो वह परमानन्द को बढ़ाता है ।। २११ ।।
विवेचन सद्गुरु के वचन अमृत तुल्य हैं
मुमुक्षु आत्मा सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की उपासक होती है और वह कुदेव, कुगुरु और कुधर्म का त्याग करतो है।
जो वीतराग हैं, वे ही हमारे देव हैं, जो निर्ग्रन्थ हैं, वे ही हमारे गुरु हैं तथा जो जिनेश्वर प्ररूपित धर्म है, वही हमारा धर्म है।
मोक्षमार्ग के साधक को सद्गुरु की साधना/उपासना करनी चाहिये और कुगुरु का त्याग करना चाहिये । - मोक्षमार्ग की साधना में गुरु तत्त्व का बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि गुरु ही मार्ग-दर्शक होते हैं। अधिकांश जीवों को
शान्त सुधारस विवेचन-२०५