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________________ अस्थिर होता है, तब उसे अपने हाथ में रही वस्तु भी दिखाई नहीं देती है और वह उसी वस्तु के लिए इधर-उधर तलाश कर रहा होता है। पूज्यपाद विनय विजयजी महाराज भव्यात्माओं को सन्मार्ग दिखलाते हुए कहते हैं कि हे भव्यात्माओ! सर्वप्रथम तुम स्थिर बनो और स्थिर बनकर जिनागम रूप अमृत का कुछ प्रास्वादन करो। ___जिनागम को ग्रन्थकार ने अमृत की उपमा दी है। अमृत के पान से आत्मा तृप्त और पुष्ट बनती है, इसी प्रकार जिनेश्वरदेव द्वारा प्ररूपित जिनागमों का स्वाध्याय-अध्ययन करो। जिनागम यह जिनेश्वर की वाणी है। इस कलिकाल में हमें साक्षात् परमात्मा के दर्शन का तो सौभाग्य प्राप्त नहीं है, फिर भी इस कलिकाल में भी वीतराग-परमात्मा के अक्षरदेहरूप जिनागमों से अवश्य लाभान्वित हो सकते हैं। जिनागम का स्वाध्याय एक ऐसा अमृत भोजन है, जिसके आस्वादन से प्रात्मा में अनादिकाल से रही हुई वासनाएँ लुप्त हो जाती हैं और प्रात्मानन्द का अनुभव होने लगता है । । अतः हे भव्यात्मन् ! तू जिनागम का कुछ रसास्वादन कर, एक बार रसास्वादन करने के बाद फिर तुम उसे छोड़ नहीं सकोगे। इसके साथ ही उन्मार्गपोषक मिथ्याशास्त्रों का त्याग करो। जैन-दर्शन के सिवाय अन्य सभी दर्शन एकान्तवाद को पकड़े हुए हैं। उस एकान्तवाद के कारण ही उनके शास्त्र मिथ्या गिने गए हैं। एकान्तवाद के कदाग्रह के कारण वे शास्त्र मोक्षमार्ग के प्रेरक न बनकर संसार की ही अभिवृद्धि करने वाले हैं। शान्त सुधारस विवेचन-२०४
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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