SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणग्राही व्यक्ति सर्वत्र गुण ही देखता है । पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजय जी म. ने भी गाया हैअन्य मां परण दयाधिक गुरणो, जे जिनवचन अनुसार रे । सर्व ते चित्त अनुमोदिए, समकित बीज निरधार रे ॥ और भी कहा है थोडलो परण गुरण पर तरगो, सांभली हर्ष मन प्रारण रे । अन्य में रहे अल्प गुरण को भी देखकर प्रसन्न होना चाहिये, उसके प्रति हृदय में आदर भाव होना चाहिये । जिह्व ! प्रह्वीभव त्वं सुकृतिसुचरितोच्चारणे सुप्रसन्ना, भूयास्तामन्यकीर्तिश्रुतिरसिकतया मेऽद्य करणौ सुकरौं । वीक्ष्याऽन्यप्रौढलक्ष्मीं द्रुतमुपचिनुतां लोचने रोचनत्वं संसारेऽस्मिन्नसारे फलमिति भवतां जन्मनो , - मुख्यमेव ।। १६२ ॥ (लग्बरावृत्तम्) अर्थ - हे जिह्वा ! सत्कर्म करने वाले पुरुषों के सुचरित्र के उच्चारण करने में प्रसन्न होकर सरल बन । अन्य पुरुषों की कीर्ति-यश के श्रवरण करने में रसिकपने से मेरे दोनों कान सुक बनें । अन्यजनों की प्रौढ़ संपत्ति को देखकर मेरी दोनों आँखें प्रसन्न बनें इस असार संसार में आपके जन्म का यही मुख्य फल है, ऐसा मैं मानता हूँ ।। १६२ ।। शान्त सुधारस विवेचन- १६८
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy