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________________ परमात्मनि विमलात्मना , परिणम्य वसन्तु । विनय समामृतपानतो, जनता विलसन्तु ॥ विनय० १८६ ॥ अर्थ-हे विनय ! (तू यह चिन्तन कर) निर्मल आशय वाले जीवों के मन परमात्म-स्वरूप में मग्न बनें तथा जगत् के प्राणी समता रूपी अमृत रस का पान कर सदा सुखी बनें ।। १८६ ॥ विवेचन जगत् के सभी जीव सुखी बनें हे आत्मन् ' तू इस प्रकार की भावना से अपनी आत्मा को भावित कर कि सभी निर्मल आत्माओं के हृदय में परमात्मा का वास हो। जिसके हृदय में परमात्मा का वास है, अर्थात् जो निरन्तर परमात्मा का ध्यान करता है, उसके हृदय में मलिन भावनाएं वासनाएँ पैदा ही नहीं होती हैं। वह आत्मा, परमात्म-स्वरूप के ध्यान से परमात्ममय बन जाती है। आत्मा अपने उपयोग के अनुसार तदाकार रूप में परिणत होती है। अशुभ/अशुद्ध वस्तु के चिन्तन से अपनी प्रात्मा भी अशुद्ध व अपवित्र बनती है और सर्वकर्ममल से मुक्त परमात्मा के ध्यान से अपनी आत्मा भी निर्मल स्वरूप को प्राप्त होती है। शान्त सुधारस विवेचन-१४६
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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