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________________ दुनिया में धर्म-धर्म की बातें करने वाले तो बहुत होते हैं, परन्तु धर्म के वास्तविक स्वरूप और रहस्य को समझने वाले कोई विरले ही पुरुष होते हैं। वास्तव में, धर्म वही है जो मोक्ष का साधन बने। धर्म को व्याख्या करते हुए कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य जी ने कहा है कि "दुर्गति में पड़ते हुए प्राणो को जो धारण करे, वह धर्म कहलाता है ।" इस प्रकार का मोक्षसाधक धर्म जिनेश्वर भगवन्तों ने बतलाया है। इस धर्म के चार प्रकार हैंदान, शील, तप और भाव । (१) दान धर्म-अपने पास जो तन, मन और धन की शक्ति है, उसका दूसरे के हित के लिए उपयोग करना, दान कहलाता है। दान यह धर्म का आदि पद कहा गया है। दान से ही जीवन में धर्म का प्रवेश होता है। अनादिकाल से जीवात्मा को धन के प्रति गाढ़ मूर्छा रही हुई है। उस मूर्छा को दूर करने के लिए, परिग्रह संज्ञा के निर्मूल नाश के लिए जिनेश्वर भगवन्तों ने दान धर्म बतलाया है। इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम श्रेयांसकुमार ने ऋषभदेव परमात्मा को वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन इक्षुरस बहोराकर दानधर्म का श्रीगणेश किया था। परहित की भावना से ही व्यक्ति अपनी शक्ति का उपयोग दूसरे के हित के लिए कर सकता है। अनादिकाल से जीवात्मा में स्वार्थवृत्ति घर कर गई है और इस स्वार्थवृत्ति के कारण जहाँ-तहां वह अपने ही लाभ आदि की बात करता है। दान धर्म हमें अन्य जीवात्मा का मूल्यांकन करना सिखाता शान्त सुधारस विवेचन-२
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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