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________________ थोड़ी सी सम्पत्ति में जीवात्मा इतना रम जाता है कि उसे इस जीवन की वास्तविकता का भान ही नहीं रहता है। वह अपने क्षणिक वैभव और बाह्य परिवार को शाश्वत मान बैठता है। अनेक जीवों को मरते देखकर भी उसे अपनी मृत्यु का विचार नहीं आता है। जीवन की इस अमरता की भ्रांति में वह रात-दिन धन-वैभव के संग्रह में प्रयत्नशील रहता है। धन-प्राप्ति तथा संग्रह की तीव्र लालसा में न्याय और नीति को भूल जाता है और अन्याय और अनीति का गुलाम बन जाता है। प्रथम धन की प्राप्ति के लिए अपूर्व पुरुषार्थ, धन-प्राप्ति के बाद उसके संरक्षण की चिन्ता। प्राप्त धन को कोई लूट न ले....कोई चोर चोरी न कर ले....इत्यादि चिंताओं से वह सतत ग्रस्त रहता है और फिर उस धन को देखकर बारम्बार मोह पाता है। धन के समान ही उसका तीव्र मोह होता है-परिवार पर। कभी पत्नी के सुख-दुःख की चिन्ता... तो कभी पुत्र-पुत्री के सुख-दुःख की चिन्ता। कुटुम्ब के ममत्व के बन्धन से जकड़ा हुआ होने के कारण वह सतत चिंतातुर रहता है। चिंता से ग्रस्त आत्मा को आत्म-चिन्तन के लिए अवकाश ही कहाँ रहता है ? पूज्य उपाध्यायश्री विनयविजयजी महाराज अपनी आत्मा को ही सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं कि हे विनय ! तू जरा विचार कर। तूने तृरण के अग्र भाग पर रहे जलबिंदु को तो देखा ही है न ! उस जलबिंदु का अस्तित्व कब तक? पवन की एक लहर के साथ ही उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। शान्त सुधारस विवेचन-२५
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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