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________________ को पावन करो और वदन को अलंकृत करो। इस शान्त सुधारस का बारम्बार पान कर दीर्घकाल तक आनन्द करो ।। १०९ ॥ विवेचन तीर्थकर के पवित्र चरित्रों से रसना को पावन करो _अन्त में, पूज्य उपाध्यायजी म. शुभकामना व्यक्त करते हुए कहते हैं कि हे प्रिय आत्मन् ! जिनेश्वरदेव के चरित्रों का बारंबार गान व पान करके अपनी रसना को पवित्र कर । जिनेश्वरदेव के पवित्र चरित्रों का पुनःपुनः पठन-पाठन करने से अपनी सुषुप्त चेतना जागृत होती है। जीवन जीने की नई दिशा मिलती है। तीर्थंकरों के चरित्र-श्रवण से उन आत्माओं की महानता, परोपकारिता, पवित्रता तथा सर्वोत्कृष्टता का बोध होता है। इस संसार में तीर्थंकर प्रात्माओं की अपनी विशिष्टता होती है। उनका प्रात्म-द्रव्य विशिष्ट कोटि का होता है। उनके सम्यग्दर्शन को वरबोधि कहते हैं। तीर्थंकरपद-प्राप्ति के पूर्व के तीसरे भव में उनकी प्रात्मा में 'सवि जीव करू शासनरसी' की सर्वोत्कृष्ट भावना प्रगट होती है। सभी जीवात्माओं के उद्धार की सर्वोत्कृष्ट भावना के फलस्वरूप उनकी आत्मा तीर्थकर नामकर्म निकाचित करती है; जिस कर्म के उदय से वे विश्व में सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकर पद को प्राप्त करते हैं। 'तीर्थंकर नामकर्म' यह सर्वश्रेष्ठ पुण्यप्रकृति है। तीर्थंकर परमात्मा का च्यवन और जन्म भी कल्याणक कहलाता है। माँ की कुक्षि में उनके आगमन के शान्त सुधारस विवेचन-२७१
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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