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________________ का जो विधान है, उसके पीछे भी यही उद्देश्य है। उन्होंने कहा है कि पुण्यादिपरिहाराय, मतं प्रच्छन्न-भोजनम् । अर्थात् पुण्य के परिहार के लिए ही संयमी के लिए एकान्त भोजन का नियम है। अतः शुभ आस्रव तत्त्व के बोध के साथ-साथ शुभ आस्रव तत्त्व के स्वरूप को भी जान लेना चाहिये, ताकि अपनी-अपनी भूमिकानुसार इनका सेवन अथवा त्याग किया जा सके। 0 मोदस्ववं रे, सास्रव - पाप्मनां , रोधे धियमाधाय । शान्त - सुधारस • पानमनारतं , विनय विधाय विधाय ॥ ६६ ॥ अर्थ-हे विनय ! प्रास्रव सहित पापात्मा के विरोध में अपनी बुद्धि को लगा और शान्त सुधारस का पान करके प्रानन्द प्राप्त कर ।। ६६ ।। विवेचन शान्तरस का पान करो ___ अन्तिम गाथा में पूज्य उपाध्यायजी म. अपनी आत्मा को ही सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे विनय ! हे आत्मन् ! आस्रव तत्त्व के स्वरूप को समझकर उसके निरोध में प्रयत्नशील बन । शान्त सुधारस विवेचन-२३४
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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