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________________ मंगलाचरण नीरन्ध्र भवकानने परिगलत्पञ्चास्त्रवाम्भोधरे, नानाकर्म लतावितानगहने, मोहान्धकारोद्धुरे । भ्रान्तानामिह देहिनां हितकृते कारुण्यपुण्यात्मभिस्तीर्थेश : प्रथितास्सुधारसकिरो रम्या गिरः पान्तु वः ॥ १ ॥ ( शार्दूलविक्रीडितम्) अर्थ - यह संसार रूपी जंगल अत्यन्त ही सघन है, जो चारों प्रोर से बरसते हुए पाँच प्रकार के प्रास्रव रूप बादलों से व्याप्त है, जो अनेक प्रकार की कर्म - लतानों से अत्यन्त ही गहन है और मोह रूपी अन्धकार से व्याप्त है, इस जंगल में भूले पड़े प्राणियों के हित के लिए करुणासागर तीर्थंकर भगवन्तों ने अमृत रस से भरपूर और अत्यन्त आनन्ददायी वारणी का जो विस्तार किया है, वह वारणी आपका संरक्षरण करे ।। १ । विवेचन महोपाध्याय श्री विनय विजयजी महाराज 'शान्त सुधारस' ग्रन्थ के प्रारम्भ में सर्वप्रथम मंगलाचरण करते हैं । इस प्राद्य 'मंगलाचरण' गाथा में तीर्थंकरों की वारणी की स्तुति कर 'वह वारणी प्रापका संरक्षरण करे, इस प्रकार आशीर्वाद भी शान्त - १ शान्त सुधारस विवेचन- १
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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