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________________ अर्थात् मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और न मैं किसी का हूँ। प्रात्मा और पुद्गल द्रव्य सर्वथा भिन्न हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र यह प्रात्मा का लक्षण है तथा शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि पुद्गल के लक्षण हैं। इस प्रकार दोनों तत्त्व सर्वथा भिन्न होने पर भी मोहनीय कर्म के तीव्र उदय से जीवात्मा देह आदि में ही आत्मबुद्धि कर लेती है, अर्थात् देह को ही वह प्रात्मा समझती है। यह अज्ञानी आत्मा की बहिरात्मदशा है। इस अवस्था में प्रात्मा देह, पुत्र, परिवार आदि पर तीव्र आसक्ति वाली होती है। आत्मा के इस अनन्त परिभ्रमण का एकमात्र कारण 'बहिरात्मदशा' ही है। चरमावर्त में प्रवेश के बाद जीवात्मा में धर्म-प्राप्ति की कुछ योग्यता आती है। सद्गुरु के समागम से 'आत्मा देह से भिन्न है' इस प्रकार का उसे ज्ञान होता है और धोरे-धीरे आत्मस्वरूप की पहिचान से बहिरात्म दशा का त्याग कर आत्मा 'अन्तरात्मदशा' प्राप्त करती है। अन्तरात्मदशा की प्राप्ति के बाद भी तीव्र राग आदि के उदय से प्रात्मा पुनः बहिरात्मदशा में भी आ सकती है, अथवा पुनः पतन के अभिमुख भी जा सकती है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है ध्वंस बहुत आसान है, मगर निर्माण कठिन है। पतन बहुत प्रासान है, मगर उत्थान कठिन है । सम्यक्त्व आदि उत्थान का मार्ग है, अत: चढ़ना अत्यन्त शान्त सुधारस विवेचन-१६०
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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