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________________ अतः हे मन ! तू पर-भाव को छोड़ दे। आत्मा का जो वास्तविक स्वरूप है, उसका तू विचार कर, चिन्तन कर, जिससे तुझे परम आह्लाद की प्राप्ति होगी। एक क्षण भर का भी आत्म विचार परम शान्ति का बीज है, अतः तू उसी में डूब जा। एकतां समतोपेता-मेनामात्मन् विभावय । लभस्व परमानन्द-सम्पदं नमिराजवत् ॥ ४६ ॥ (अनुष्टुप्) अर्थ-हे आत्मन् ! समत्व से युक्त एकता का तू भावन कर, जिससे नमि राजर्षि की तरह तुझे परमानन्द की सम्पत्ति प्राप्त होगी ।। ४६ ।। विवेचन समतायुक्त एकत्व भावना का प्रभाव समता प्रात्मा का स्वभाव है। समता अर्थात् माध्यस्थ दशा। न इष्ट का राग और न अनिष्ट का द्वेष । न मित्र पर प्रेम और न शत्रु के प्रति घृणा। न स्वर्ण की आसक्ति और न ही तृण का तिरस्कार ।। सर्व अवस्थाओं में माध्यस्थ रहना यह आत्मा का स्वभाव है। इस स्वभाव की प्राप्ति से आत्मा वीतराग बन जाती है और मोह के जाल से सर्वथा मुक्त हो जाती है। मोह से मुक्त आत्मा सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाती है और सर्वज्ञ-सर्वदर्शी प्रात्मा अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के उपयोग में लीन रहती है। शान्त सुधारस विवेचन-१२८
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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