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________________ आत्म-स्थिरता खो देता है। उसके मन में नाना प्रकार के विकल्प चलते रहते हैं और इस प्रकार वह सदैव प्रशान्त-अस्थिर दशा में रहता है। परस्त्री व्यसनी की समाज में भी इज्जत नहीं होती है, लोग उसे हल्की नजर से देखते हैं। बस, इसी प्रकार आत्मगुणों को छोड़कर पर-पदार्थों में ममत्व करना एकमात्र आपत्ति का ही कारण है। पौद्गलिक पदार्थ आत्मा से पर हैं। अतः परपदार्थ की ओर नजर डालना....उनसे प्रेम करना यह परस्त्रीगमन की तरह ही है, जो अनेक आपत्तियों को लाने वाला है। इस संसार-भ्रमण का भी मुख्य कारण जो अपना नहीं है, उसमें अपनेपन को बुद्धि ही है। परभाव में रमण की यह कितनी भयंकर सजा है कि 'अजन्मा' स्वभाव वाले आत्मा को जन्म लेना पड़ता है। 'अमर' स्वभाव वाली आत्मा को मरना पड़ता है। अधुना परभावसंवृति हर चेतः परितोऽवगुण्ठितम् । क्षणमात्मविचारचन्दन-द्रुमवातोमिरसाःस्पृशन्तुमाम् ॥४८॥ अर्थ--हे मन ! चारों ओर से घिरे हुए पर-भाव रूप आवरण को तू दूर हटा दे, ताकि आत्मचिन्तन रूप चन्दन वृक्ष के पवन की उमि के रस का क्षणभर के लिए मुझे स्पर्श हो जाय ।। ४८ ॥ शान्त सुधारस विवेचन-१२६
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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