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________________ इस प्रकार के विचित्र किन्तु वास्तविक सम्बन्धों को सुनकर सबको पश्चाताप हुआ, संसार की असारता को समझ कर सभी ने दीक्षा अंगीकार को और अपना आत्मकल्याण किया। जब एक ही भव में इस प्रकार के विभिन्न सम्बन्ध घट सकते हैं, तब इस अनन्त भव संसार में ये भिन्न-भिन्न सम्बन्ध घट जायें तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ज्ञानियों का वचन है कि इस अनन्त संसार में सभी जीवों के साथ सभी प्रकार के सम्बन्ध हमारी आत्मा ने किए हैं, अतः किसी सम्बन्ध-विशेष का राग करना केवल मूर्खता ही है। यत्र दुःखातिगददवलवै-.. रनुदिनं दासे जीव रे। हन्त तत्रैव रज्यसि चिरं, मोहमदिरामदक्षीव रे ॥ कलय० ४२ ॥ अर्थ-मोह की मदिरा के पान से नष्टबुद्धि वाले हे जीवात्मा ! खेद है कि जहाँ पर दुःख की पीड़ा के दावानल से तू निरन्तर जला है, उसी स्थान में तू दीर्घकाल से राग करता है ।। ४२ ॥ विवेचन मोह का नशा एक मनुष्य जो सुगन्ध से प्रेम करता है और दुर्गन्ध से घृणा करता है, परन्तु वही व्यक्ति जब शराब की बोतल चढ़ा लेता है और लड़खड़ाता हुआ गटर में गिर पड़ता है, तब उसे कीचड़ शान्त-८ शान्त सुधारस विवेचन-११३
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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