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मैं दूसरी बकरी खरीदूंगा, फिर धीरे-धीरे मेरे पास....५० रु. हो जाएंगे, उससे एक गाय खरीद लूगा....जिससे अधिक दूध मिलेगा....उस दूध को रोज बेचू गा....धीरे-धीरे मेरे पास ज्यादा गायें हो जाएंगी....फिर भैंस खरीद लूगा....वह बहुत दूध देगी.... फिर मैं धीरे-धीरे दूध का व्यापारी बन जाऊंगा....मेरे पास काफी धन हो जाएगा....फिर अच्छी सुन्दर लड़की के साथ मेरी शादी होगी....वह मेरी बीबी मेरी आज्ञा का पालन करेगी....और यदि वह मेरी प्राज्ञा का पालन नहीं करेगो तो मैं उसे घर से निकाल ..।" और इस विचार-विचार में हो शेखचिल्लो को मिट्टी की हांडी को हाथ से जोर का धक्का लग गया और उसमें रहा सारा दूध भूमि पर ढुल गया। शेखचिल्ली के सभी स्वप्न मिट्टी में मिल गए।
बस, यही स्थिति है संसारी जीवात्मा की। थोड़ा सा धन मिल गया....एक सम्राट् के स्वप्न देखने लग जाएगा। थोड़ी सी इज्जत मिल गई....विश्वपूज्य के स्वप्न देखने लग जाएगा।
__ और कहीं से थोड़ा सा अपमान मिल गया अथवा व्यापार में थोड़ा सा घाटा हो गया तो वह अत्यन्त दीन-हीन बन जाएगा और ऐसी कल्पनाएं करेगा मानों पूरी दुनिया खराब है, कोई अच्छा व्यक्ति नहीं है।
लेकिन मनुष्य कर्म-सत्ता का विचार करे तो वह सुख में लीनता और दुःख में दीनता की बुरी हालत से बच सकता है। परन्तु मोह के नशे में चकचूर बने मानव के लिए यह सोचने का अवकाश ही कहाँ है ? यदि इस प्रकार सोचने लगे तो वह अवश्य ही धीरे-धीरे कर्म-जाल से छूट सकता है ।
शान्त सुधारस विवेचन-१०६