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________________ जो अपनी आत्मा का हित करे, बाकी तो सब परजन ही हैं। परन्तु मोह के नशे में आत्मा स्वजन-परजन की इस सच्ची व्याख्या को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो पाती है, वह तो देह के सम्बन्धियों को ही स्वजन स्वीकारने के लिए तैयार है। प्रात्मा का निरन्तर हित चाहने व करने वाले देव-गुरु और धर्म को वह सच्चा स्वजन मानने के लिए तैयार ही नहीं है। इसी कारण दुनिया में हम देखते हैं कि स्वसन्तान व स्वकुटुम्ब के लिए लाखों रुपये खर्च करने वाले भी देव-गुरु और धर्म के लिए एक रुपया भी प्रेम से खर्च करने के लिए तैयार नहीं हो पाते हैं। धर्म में खर्च आते ही वे अपना मुंह मोड़ लेते हैं। ऐसा क्यों ? इसका कारण यही है कि धर्म के प्रति उनके हृदय में प्रात्मीय सम्बन्ध नहीं हो पाया है। स्वजन-पुत्र परिवार के मोह में व्यक्ति इतना अन्धा हो जाता है कि वह भावी का विचार ही भूल जाता है। कवि ने ठीक ही कहा है पूत कपूत तो क्यों धन-संचय? पूत सपूत तो क्यों धन संचय ? सन्तान यदि कपूत है तो उसके लिए धन का सचय करना मूर्खता ही है। वह तो पिता के धन को भी विनाश के मार्ग में नष्ट कर देगा और सन्तान यदि सपूत है तो उसके लिए भी धन का संचय करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सपूत सन्तान ही तो सच्चा धन है। पुत्र यदि सपूत है तो वह अपनी सज्जनता के बल से अपना गुजारा आसानी से चला सकेगा और वह अपने पिता की भी सेवा प्रदा करेगा। शान्त सुधारस विवेचन-१०२
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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