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________________ श्री संवेगरंगशाला ६६ प्रहार करते हैं इतने में राजा ने कहा - अरे ! इस चोर की मेरे समान रक्षण करना। उनसे घिरा हुआ भी महान गजेन्द्र के समान अक्षुभित चित्तवाला और हाथ में शोभित तलवार वाले उस वंकचूल ने रात्री पूर्ण की। इधर रानी के प्रति क्रोधित वह राजा शयन घर में गया और सोये हुए भी वह पिछली रात में मुसीबत से उठा, उसके बाद प्रभात हुआ, प्राभातिक बाजे बजे, तब काल निवेदक चारणपुत्र ने इस प्रकार कहा - हे देव ! अखण्ड प्रताप वाले, सभी तेजस्वियों के तेज को नाश करने वाले, अखण्ड पृथ्वी मण्डल को धारण करने वाले, दुष्टों के प्रयास को प्रतिघात करने वाले, विकसित लक्ष्मी के खान समान, स्थिर पुण्योदय वाले, और सन्मार्ग को प्रकाश करने में तत्पर, सूर्य समान विजयी बनो । राजा ने सुनकर प्रभात के समग्र कार्य करके रात्री के वृत्तान्त को स्मरण करते हुए राज्यसभा में बैठा । उस समय प्रणाम करते पहरेदार पुरुषों ने कहा - हे देव ! 'यह वह चोर है' ऐसा बोलकर वक्चूल को वहाँ उपस्थित किया, और उसका रूप देखकर मन में आश्चर्यपूर्वक राजा ने विचार किया - ऐसो आकृति वाला यह चोर कैसे हो सकता है ? यह वास्तविक में चोर ही होता तो रानी के वचन स्वीकार क्यों नहीं करता ? क्योंकि. भिन्न चित्तवाला वह सावध होने से प्रायःकर कहीं पर स्खलना नहीं प्राप्त करता है ? अथवा यह विकल्प करने से क्या लाभ ? इसी को ही पूछ लूं, ऐसा सोचकर स्नेहयुक्त नेत्रों से राजा ने उसको देखा, और उसने राजा को नमस्कार किया, फिर उसे उचित आसन दिया । उसके ऊपर वंकचूल बैठा तब राजा ने स्वयं पूछा - अरे देवानु प्रिय ! तुम कौन हो ? और अत्यन्त निन्दनीय कुलीन के अयोग्य नोच चोरी का कार्य तुमने क्यों आचरण किया है ? वंकचूल ने कहा— केवल कायरता से यह कार्य नहीं किया, परन्तु जैसे भूखे परिवार द्वारा प्रार्थना करने से और क्षीण वैभव वाले महापुरुषों की भी बुद्धि वैभव चलित हो जाती है वैसे दरिद्रता के कारण मेरी बुद्धि मलिन हो गई है, और जो आप पूछते हैं कि तू कौन है ? वह भी मेरी ऐसी प्रवृत्ति से मेरा स्वरूप प्रगट होता है इससे कुछ भी कहने योग्य नहीं है । राजा ने कहा- ऐसा मत बोल, तू सामान्य नहीं है, अब यह बात रहने दे, रात्री का वृत्तान्त कहो। इससे 'रानी के सर्व बातें राजा ने जानी है, ऐसा निश्चय करके उसने कहा - हे देव ! सुनिए, आपके घर की चोरी की इच्छा वाला मैं यहाँ आया था और रानी ने भी किसी तरह मुझे आते देख लिया, हे राजन् । इसके बिना अन्य वृत्तान्त नहीं है। बार-बार पूछने पर भी महात्मा के समान रानी की बात न कहकर केवल अपनी ही भूल कही, तब उसकी सज्जनता से प्रसन्न हुए राजा ने कहा – हे
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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