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________________ श्री संवेगरंगशाला कुल मलिन हो, वह कुल वाले को नहीं करना चाहिए।' क्रोध वाली उसने तिरस्कारपूर्वक वंकचूल से कहा-अरे ! महामूढ़ ! कायर के समान तू ऐसा अनुचित क्यों बोल रहा है ? जिसको तूने स्वप्न में भी नहीं देखी वह अभी राजपत्नी मिली है। उसे हे मूढ़ ! तू क्यों नहीं भोग करता? उसने उत्तर दिया-हे माता ! अब आग्रह को छोड़ दो, मन से यह चिन्तन करना भी योग्य नहीं है, उग्र जहर खाना अच्छा है परन्तु ऐसा अकार्य करना अच्छा नहीं है। प्रति कुल जवाब के कारण रानी का क्रोध विशेष बढ़ गया, उसने प्रकट रूप में उससे कह दिया कि-हे हताश ! नग्न साधु के बेआबरू या पट भव में स्वर्ग समान तू मेरे वश होकर स्वर्ग का सुख भोगेगा या निश्चय समग्र नगर में विडम्बना प्राप्त कर मरण-शरण होगा। तब उसने रानी से कहा-पूर्व में 'माता-माता' कहकर अब तुझे ही पत्नी कह कर किस तरह सेवन करूँ ? उस समय चिर समय से रानो का समझाने को आया हुआ दिवाल के पीछे रहकर उसके सारे शब्द सुनकर विचार करने लगा कि-अहो ! आश्चर्य की बात है कि सन्मान और दान देकर प्रसन्न करने पर भी स्त्री एक पुरुष में स्थिरता नहीं रखती है कि जिससे अच्छे कुल में जन्म होने पर अनुरागी मन वाले मुझे छोड़कर इस तरह इस अनजान मनुष्य को भोगने की इच्छा होती है। सुख के नाश रूपी ऐसी स्त्रियो पर राग करना ही सर्वथा धिक्कार रूप है । अरे रे ! ऐसी स्त्रियों अच्छ कुलोन पुरुषों का भी किस तरह संकट में डालती हैं ? यद्यपि पाप करने पर भा यह चोर कोई सत्पुरुष रूप है, कि जो सामभेद आदि युक्तियों द्वारा यह स्त्रो प्राथना करती है, तो भी मर्यादा नहीं छोड़ी। पृथ्वी आज भी रत्नों का आधार है, अभी भो कालिकाल नहीं आया, जिससे ऐसे श्रेष्ठ पुरुष रत्न दिखते हैं । जो निश्चय ही एक प्रहार से हाथी के कुम्भस्थल के टुकड़े करते, वे भी स्त्री के नेत्र रूपी बाण के प्रहार से (कटाक्ष से) घायल हुआ दुःखी होता है, परन्तु यह सत्त्ववान् पुरुष है, इस रानी के प्रार्थना करने पर भी अपनी मर्यादा को लेशमात्र भी नहीं छोड़ता है, इस कारण से यह पुरुष दर्शन करने योग्य है । इस प्रकार राजा जब विचार करता है तब अन्तिम निर्णय के लिए रानी पुनः बोली-अरे तूने क्या निश्चय किया ? क्या तू मेरा वचन नहीं मानेगा? उसने भी हर्षपूर्वक कहा-मैं आपकी बात स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। फिर अत्यन्त क्रोधित बनी रानी जोर-जोर से चिल्लाने लगी कि-अरे पुरुषों ! राजा का सारा धन लूटा जा रहा है, आप उसकी उपेक्षा क्यों कर रहे हो? दौड़ो ! दौड़ो ! चोर यहीं पर है। शोर सुनकर चारों तरफ से रक्षक पुरुष आ गये, हाथ में तलवार, चक्र और बाण वाले जैसे उसके ऊपर
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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