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________________ श्री संवेगरंगशाला ५६५ ____ अट्ठारहवाँ निःशल्यता द्वार : हे क्षपक मुनि ! सर्व गुणों से शल्य रहित आत्मा में ही प्रगट होते हैं। गुण के विरोधी शल्य के तीन भेद हैं(१) नियाण शल्य, (२) माया शल्य, और (३) मिथ्या दर्शन शल्य। इसमें नियाण-निदान, राग से, द्वेष से और मोह से इस तीन प्रकार का है। राग से नियाण, रूप सौभाग्य और भोग सुख की प्रार्थना रूप है । द्वेष से नियाण तो प्रत्येक जन्म में अवश्यमेव दूसरे को मारने रूप अथवा अनिष्ट करने का जानना और धर्म के लिए हीन कुल आदि की प्रार्थना करना वह नियाण मोह से होता है अथवा प्रशस्त, अप्रशस्त और भोग के लिए नियाण करना वह मिथ्या दर्शन है। ये तीनों प्रकार के नियाणों को तुझे छोड़ने योग्य है। इसमें संयम के लिए पराक्रम, सत्त्व, बल, वीर्य, संघयण, बुद्धि, श्रावकत्व, स्वजन, कुल आदि के लिए जो नियाणा होता है, वह प्रशस्त माना गया है। एवं नंदिषेण के समान, सौभाग्य, जाति, कूल, रूप आदि का और आचार्य, गणधर अथवा जैनत्व की प्रार्थना करना, वह अभिमान से होने के कारण अप्रशस्त निदान माना गया है। मर कर यदि दूसरे को वध करने की प्रार्थना करे, द्वारिका के विनाश करने की बुद्धि वाला द्वैपायन के समान क्रोध के कारण उसे अप्रशस्त जानना । देव या मनुष्य के भोग राजा, ऐश्वर्यशाली, सेठ या सार्थवाह, बलदेव तथा चक्रवर्ती पद माँगने वाले को भोगकृत नियाणा होता है। पुरुषत्व आदि निदान प्रशस्त होने पर भी यहाँ निषेध किया है, वह अनासक्त मुनियों के कारण जानना, अन्य के लिए नहीं है । दुःखक्षय, कमक्षय, समाधि मरण और बोधि लाभ इत्यादि प्रार्थना भी सरागी अवश्य कर सकता है। संयम के शिखर में आरूढ़ होने वाला, दुष्कर तप को करने वाला और तीन गुप्ति से गुप्त आत्मा भी परीषह से पराभव प्राप्त कर और अनुपम शिव सुख को अवगणना करके जो अति तुच्छ विषय सुख के लिए इस तरह नियाणा करता है, वह काँच मणि के लिए वैडुर्य मणि का नाश करता है। नियाणा (निदान) करने के कारण आरंभ में मधुर और अन्त में विरस सुख को भोग कर ब्रह्मदत्त के समान जीव बहुत दुःखमय नरक रूपी खड्ड में गिरता है। उसकी कथा इस प्रकार है :-- ब्रह्मदत्त का प्रबन्ध साकेत नामक श्रेष्ठ नगर में चन्द्रावतंसक नाम का राजा राज्य करता था। उसे मुनिचन्द्र नाम का पुत्र था। उसने सागर चन्द्र आचार्य के पास दीक्षा स्वीकार की और सूत्र-अर्थ का अभ्यास करते दुष्कर तप कर्म करने लगा। दूर देश में जाने के लिए गुरू के साथ चला और एक गाँव में भिक्षार्थ गये वहाँ
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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