________________
५६४
श्री संवेगरंगशाला
की आज्ञा दी। ऐसे दोष के समूह वाली स्पर्शनेन्द्रिय के वश हुए इस जन्म-परजन्म में असरल और कठोर दुःख को प्राप्त करता है।
इसलिए हे भद्र ! विषय रूपी उन्मार्ग से जाते इन्द्रिय रूप अश्वों को रोककर और वैराग्य रूपी लगाम से खींचकर सन्मार्ग में जोड़ दो। स्व-स्व विषय की ओर दौड़ते इन इन्द्रिय रूप मृग के समूह को सम्यग् ज्ञान और भावना रूप जाल से बंधन कर रखो। तथा हे धीर ! दुर्दात इन्द्रिय रूपी घोड़ों का बुद्धि बल से इस तरह दमन कर कि जिससे अन्तरंग शत्रुओं को उखाड़कर आराधना रूपी पताका को स्वीकार कर । इस तरह इन्द्रिय दमन नामक अंतर द्वार अल्पमात्र कहा है। अब मैं तप नाम का सत्रहवाँ अन्तर द्वार को कहता हूँ। वह इस प्रकार है :
सत्रहवाँ तप द्वार :-हे क्षपक मुनि ! तू वीर्य को छुपाये बिना अभ्यंतर और बाह्य तप को कर। क्योंकि वीर्य को छपाने वाला, माया, कषाय और वीर्यान्तराय का बन्धन करता है। सुखशीलता, प्रमाद और देहासक्त भाव से शक्ति के अनुसार तप नहीं करने वाला माया मोहनीय कर्म का बन्धन करता है । मूढ़मति जीव सुखशीलता से तीव्र अशातावेदनीय कर्म का बन्धन करता है। और प्रमाद के कारण चारित्र मोहनीय कर्म का बन्धन करता है। और देह के राग से परिग्रह दोष उत्पन्न होता है। इसलिए सूखशीलता आदि दोषों को त्याग कर नित्यमेव तप में उद्यम कर । यथाशक्ति तप नहीं करने वाले साधुओं को यह दोष लगता है और तप को करने वाले साधु को इस लोक और परलोक में गुणों की प्राप्ति होती है। संसार में कल्याण, ऋद्धि, सुख आदि जो कोई देव मनुष्यों को सुख और मोक्ष का जो श्रेष्ठतम सुख मिलता है वह सब तप के द्वारा मिलता है। तथा पाप रूपी पर्वत को तोड़ने के लिए वज्र का दण्ड है, रोग रूपी महान् कुमुद वन को नाश करने में सूर्य है, काम रूपी हाथो को नाश करने में भयंकर सिंह है । भव समुद्र को पार उतरने के लिए नौका है। कुगति के द्वार का ढक्कन, मनवांच्छित अर्थ समूह को देने वाला और जगत में यश का विस्तार करने वाला, श्रेष्ठ एक तप को ही कहा है। इस तप का तू महान् गुण जानकर, मन की इच्छाओं को रोककर, उत्साहपूर्वक, दिन प्रतिदिन तप द्वारा आत्मा को वासित कर । केवल शरीर को पीड़ा न हो और मांस, रुधिर की पुष्टि भी न हो तथा जिस तरह धर्म ध्यान की वृद्धि हो, उस तरह हे क्षपक मुनि ! तुम तपस्या करो। यह तप नाम का अन्तर द्वार कहा है। अब संक्षेप में अट्ठारहवाँ निःशल्यता नामक अन्त द्वार को भी कहता हूँ।