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________________ श्री संवेगरंगशाला ५६१ होने से पराई है | अरे ! निर्दोष भी उस स्त्री को दोषित बताने वाले पापी वे अधिकारी मेरे पुरुषों ने मुझे क्या ठगा । इस प्रकार अति चिन्तातुर राजा लम्बा श्वास लेकर दुःसह कामाग्नि से कठोर सन्ताप हुआ । राजा के दुःख का रहस्य जानकर सेनापति ने समय देखकर कहा कि - हे स्वामी ! कृपा करो, उस मेरी पत्नी को आप स्वीकार करो। क्योंकि सेवकों का प्राण भी अवश्य स्वामी के आधीन होते हैं । तो फिर बाह्य पदार्थ धन, परिजन, मकान आदि के विस्तार को क्या कहना । यह सुनकर राजा हृदय में विचार करने लगा कि - एक ओर कामाग्नि अत्यन्त दुःसह है दूसरी ओर कुल का कलंक भी अति महान है । यावच्चन्द्र काले अपयश की स्पर्शनारूप और नीति के अत्यन्त घात रूप पर स्त्री सेवन मेरे लिए मरणान्त में भी योग्य नहीं है । ऐसा निश्चय करके राजा ने सेनापति से कहा कि - हे भद्र । ऐसा अकार्य पुनः कभी भी मुझे नहीं कहना । नरक रूप नगर का एक द्वार और निर्मल गुण मन्दिर में मसि का काला कलंक पर दारा का भोग नीति का पालन करने वाले से कैसे हो सकता है ? तब सेनापति ने कहा कि - हे देव ! यदि परदारा होने से नहीं स्वीकार करते, तो आप के महल में यह नाचने वाली वेश्या रूप में दूं । उसके बाद वेश्या मानकर भोग करने से आपको पर स्त्री का दोष भी नहीं लगेगा । इसलिए इस विषय में मुझे आज्ञा दीजिए । राजा ने कहा कि - चाहे कुछ भी हो मैं मरणान्त में भी ऐसा अकार्य नहीं करूँगा । अतः हे सेनापति ! अधिक बोलने को बन्द करो । फिर नमस्कार करके सेनापति अपने घर गया । राजा भी उसे देखने के अनुराग रूप अग्नि से शरीर अत्यन्त जलते राजकार्यों को छोड़कर हृदय में इस प्रकार कोई तीव्र आघात लगा कि जिससे आर्त्त ध्यान के वश मरकर तिर्यंच में उत्पन्न हुआ । इस प्रकार के दोष के कारण से चक्षुराग कहा है अब घ्राण के राग में होने के दोष संक्षेप से कहते हैं । गन्ध प्रिय का प्रबन्ध अति गन्ध प्रिय एक राज पुत्र था । वह जिस-जिस सुगन्धी पदार्थ को देखता था, उन सब को सूंघता था । किसी समय बहुत मित्रों के साथ वह नाव में बैठकर नदी के पानी में क्रीड़ा करता था । उसे इस तरह क्रीड़ा करते जानकर अपने पुत्र को राज्य देने की इच्छा से उसकी सौतिन माता ने उसे गन्धप्रियता जानकर उसे मारने के लिए तीव्र महा जहर को अति कुशलता से पेटी में रखकर और उस पेटी को नदी में बहती छोड़ दी, फिर नदी में
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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