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________________ श्रो संवेगरंगशाला ५५३ नये कर्मों का बन्धन नहीं करता है और यथार्थ भावना में तत्पर जीव को फूट के उत्कट गन्ध जैसे मीठा छेदन भेदन हो जाता है वैसे पुराने कर्म छेदन हो जाते हैं । अखण्ड प्रचण्ड सूर्य के किरणों से ग्रासित बर्फ के समान शुभ भावनाओं अशुभ कर्मों का समूह क्षय हो जाता है । इसलिए ध्यानरूपी योग की निद्रा से आधी बन्द नेत्र वाला संसार से डरा हुआ, तू हे सुन्दर मुनि ! अनासक्त भाव से बारह भावनाओं का चिन्तन कर । इस तरह बारह प्रकार की भावनाओं के समूह नामक यह चौदहवाँ अन्तर द्वार कहा है अब पन्द्रहवाँ शील पालन नामक अन्तर द्वार कहता हूँ । जिसका अखण्ड है, वह मूल पन्द्रहवाँ शील पालन द्वार : - निश्चयनय से शील यही आत्मा का स्वभाव है । और व्यवहार नय से आश्रव के द्वार को रोककर चारित का पालन करना उसे शील कहते हैं । अथवा शील मन की समाधि है । पुरुष स्वभाव दो प्रकार का है प्रशस्त और अप्रशस्त । उसमें जो राग, द्वेष आदि से कलुषित है वह अप्रशस्त है और चित्त की सरलता, राग, द्वेष की मन्दता और धर्म के परिणाम वाला है वह प्रशस्त स्वभाव है । यहाँ प्रशस्त स्वभाव का वर्णन किया है । इस प्रकार अति प्रशस्त स्वभाव रूपी शील गुणों की आधारशिला है, इससे दूसरे भी गुण समूह को धारण करता है । चारित्र दो शब्दों से बना है, चय + रिक्त = चारित्र चय अर्थात् कर्म का संचय और रिक्त अर्थात् अभाव है अर्थात् जहाँ कर्म संचय का अभाव हो उसे चारित्र कहते हैं । और वह चारित्र शास्त्रोक्त विधि निषेध के अनुसार अनुष्ठान है और वह आश्रव की विरति से होता है । क्योंकि चारित्र पालन रूप शील की ही वृद्धि के लिए आश्रव का निरोध करने में समर्थ यह उपदेश ज्ञानियों ने दिया है । जैसे कि - निर्जरा का अर्थी सदा इन्द्रियों का दमन करके और कषाय रूप सर्व सैन्य को भी नष्ट करके आश्रव द्वार को रोकने के लिए प्रयत्न करता है । क्योंकि जैसे रोग से पीड़ित मनुष्य को अथ्य - अहित आहार छोड़ने से रोग का नाश होता है वैसे इन्द्रिय और कषायों को जीतने से आश्रव का नाश होता ही है । इसीलिए ही समस्त जीवों के प्रति मुनि स्वआत्म तुल्य वर्तन करते हैं । सद्गति की प्राप्ति के लिए इससे अन्य उपाय ही नहीं है । अतः ज्ञान से, ध्यान से, और तप के बल से, बलात्कार से भी सर्व आश्रव द्वार को रोककर निर्मल शील को धारण करना चाहिये । और मन समाधि रूप शील को भी मोक्ष साधक गुणों के मूल कारण रूप जानना । सूत्र में कहा है कि जिसको समाधि है उसे तप है और जिसे तप है उसे सद्गति सुलभ है । जो पुरुष असमाधि वाला है उसका तप भी दुर्लभ है । एवं जो करण नाम से साधक
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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