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________________ ५५२ श्री संवेगरंगशाला और जो पृथ्वी के समान सर्व सहन करने वाला हो, मेरू के समान अचल धर्म में स्थिर और चन्द्र के समान सौम्य लेश्या वाला हो उस धर्म गुरू की ज्ञानियों ने प्रशंसा की है। देश काल का जानकार, विविध हेतुओं का तथा कारणों के भेद का जानकार और संग्रह तथा उपग्रह सहायता करने में जो कुशल हो उस धर्म गुरु की ज्ञानियों ने प्रशंसा की है। लौकिक, वैदिक और लोकोत्तर, अन्यान्य शास्त्रों में जो लब्धार्थ-स्वयं रहस्य का जानकार हो तथा गृहितार्थ अर्थात् दूसरों से पूछ कर अर्थ का निर्णय करने वाला हो, उस धर्म गुरू की ज्ञानी भी प्रशंसा करते हैं। अनेक भवों में परिभ्रमण करते जीव उस क्रियाओं में, कलाओं में और अन्य धर्माचरणों में उस विषय का जानकार हजारों धर्म गुरूओं को प्राप्त करते हैं परन्तु श्री जैन कथित निर्ग्रन्थ प्रवचन में जैन शासन से संसार से मुक्त होने के मार्ग को जानने वाले जो धर्म गुरू हैं वह यहाँ मिलना दुर्लभ है। जैसे एक दीपक से सैंकड़ों दीपक प्रगट होते हैं। और दीपक प्रति प्रदेश को प्रकाशमय बनाता है वैसे दीपक समान धर्म गुरू स्वयं को और घर को प्रकाशमय करते हैं। धर्म को सम्यक जानकार, धर्म परायण, धर्म को करने वाला और जीवों को धर्म शास्त्र के अर्थ को बताने वाले को सुगुरु कहते हैं। चाणक्य नीति, पंचतन्त्र और कामंदक नामक नीति शास्त्र आदि राज्य नीतियों की व्याख्या करने गुरू निश्चय जीवों का हित करने वाले नहीं हैं। तथा वस्तुओं का भावी तेजी मंदी बताने वाले अर्थ काण्ड नामक ग्रन्थ आदि, ज्योतिष के ग्रन्थ तथा मनुष्य, घोड़े, हाथी आदि के वैद्यक शास्त्र, और धनुर्वेद, धातुर्वाद आदि पापकारी उपदेश करने वाले गुरू जीवों के घातक हैं तथा बावड़ी, कुए, तालाब आदि का उपदेश सद्गुरू नहीं देता है क्योंकिअसंख्यात् जीवों का विनाश करके अल्प की भक्ति नहीं होती है। इसीलिए ही जीवों की अनुकम्पा वाला हो वह सुगुरू निश्चय हल, गाड़ी, जहाज, संग्राम अथवा गोधन आदि के विषय में उपदेश भी कैसे दे सकता है ? अतः कष, छेद आदि से विशुद्ध धर्म गुरू रूपी सुवर्ण के दातार गुरू की ही यहाँ इस भावना में दुर्लभता कही है। इसलिये हे भद्रक मुनि ! भयंकर संसार की दीवार तोड़ने के लिए हाथी की सेना समान समर्थ बारह भावनाओं को संवेग के उत्कर्षपूर्वक चित्त से चिन्तन कर । दृढ़ प्रतिज्ञा वाला साधु जैसे-जैसे वैराग्य से वासित होता है वैसे-वैसे सूर्य से अन्धकार का नाश हो उसी तरह कर्म अथवा दुःख क्षय होता है। प्रति समय पूर्ण सद्भावपूर्वक भावनाओं के चिन्तन से भव्यात्मा के चिर संचित कर्म अतितीव्र अग्नि के संगम से मोम पिघलता है वैसे पिघल जाते हैं।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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