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श्री संवेगरंगशाला
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से आया है ? चारूदत्त ने उसे सारी अपनी बात कही । त्रिदण्डी ने कहा किहे वत्स ! आओ ! पर्वत पर चलें और वहाँ से, चिरकाल से पूर्व में देखा हुआ विश्वासपात्र कोटिवेध नामक रस को लाकर तुझे धनाढ्य करूँ । चारूदत्त ने वह स्वीकार किया ।
वे दोनों पर्वत की गाढ़ झाड़ियों में गये, और वहाँ उन्होंने यम के मुख समान भयंकर रस के कुए को देखा । त्रिदण्डी ने चारूदत्त को कहा कि -भद्र ! तुम्बे को लेकर तुम इसमें प्रवेश करो और रस्सी का आधार लेकर शीघ्र फिर वापिस निकल आना । फिर रस्सी के आधार से चारूदत्त उस अति गहरे कुए में प्रवेश कर जब उसके मध्य भाग में खड़े होकर रस लेने लगा । तब किसी ने उसे रोका कि- हे भद्र ! रस को मत लो | मत लो । तब चारूदत्त ने कहा कि- तुम कौन हो ? मुझे क्यों रोकता है ? उसने कहा कि - मेरे जहाज समुद्र में नष्ट हो गये थे । धन के लोभ में वणिक यहाँ आया और मुझे रस के लिए त्रिदण्डी ने रस्सी से यहाँ उतारा था, मैंने रस से भरा तुम्बा उसे दिया, तब उस पापी ने इस तरह स्वकार्य सिद्धि के लिए उस रस तुम्बा को लेकर रस कुए की पूजा के लिए बकरे के समान, मुझे कुए में फेंक दिया । रस में नष्ट हुआ आधे शरीर वाला हूँ, अब मेरे प्राण कण्ठ तक पहुँच गये हैं, और मरने की तैयारी है । यदि तू इस रस को देगा तो तेरा भी इसी तरह विनाश होगा। तू तुम्बा मुझे दे कि जिससे वह रस भरकर मैं तुझे दूं । उसने ऐसा कहा, तब चारूदत्त ने उसे तुम्बा दिया, फिर रस भरकर वह तुम्बा उसने चारूदत्त को दिया, उस समय चारूदत्त ने उसमें से निकालने के लिए हाथ से रस्सी हिलाई । तब रस की इच्छा वाले त्रिदंडी उसे खींचने लगा । परन्तु जब चारूदत्त किसी तरह बाहर नहीं निकला, तब चारूदत्त ने रस को कुए में फेंक दिया। इससे क्रोधायमान होकर त्रिदंडी ने उसे रस्सी सहित छोड़ दिया । वह अन्दर गिरा ' अब जीने की आशा नहीं है ।' ऐसा सोचकर सागर अनशन करके श्री पंच परमेष्ठि का स्मरण करने लगा । उस समय उस वणिक ने कहा कि - कल रस पीकर गोह गई है यदि पुनः वह यहाँ आये तो तेरा निस्तारा हो जायेगा । ऐसा सुनकर कुछ जीने की आशा वाला वह जब पंच नमस्कार मन्त्र का जाप करने में तत्पर था तब अन्य दिन गोह वहां आई और उस रस को पीकर निकल रही थी, उसी समय चारूदत्त ने जीने के लिए उसे पूंछ से दृढ़ पकड़ लिया, फिर उस गोह ने उसे बाहर निकाला । इससे अत्यन्त प्रसन्न हुआ वह पुनः चलने लगा, और उसने महा मुश्किल से जंगल को पार किया ।