SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 523
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०० श्री संवेगरंगशाला आचरण वाला बनता है, वैसे वृद्ध पुरुष भी कामी तरुण की बातों से जल्दी ही अकार्य में विश्वासु, निःशंक और प्रकृति से मोहनीय कर्म उदय वाला तरुण कामी पुरुष के समान आचरण वाला बनता है । जैसे मिट्टी में छुपा हुआ गंध पानी के योग से प्रगट होता है, वैसे प्रशान्त मोह भी युवानों के सम्पर्क से मनुष्य में विकराल बनता है । युवान के साथ रहने वाला सज्जन संत पुरुष भी अल्पकाल में इन्द्रिय से चंचल, मन से चंचल, स्वेच्छाचारी बनकर स्त्री सम्बन्धी दोषों को प्राप्त करता है । पुरुष का विरह होते, एकान्त में, अन्धकार में और कुशील की सेवा अथवा परिचय में - इन तीनों कारण से अल्पकाल में अप्रशस्त भाव प्रगट होता है । मित्रता के दोष से ही चारूदत्त ने आपत्ति को प्राप्ति की तथा वृद्ध सेवा से पुनः उन्नति को प्राप्त किया था । वह कथा इस प्रकार है --- चारूदत्त की कथा चम्पा नगरी में भानु नामक महान् धनिक श्रावक रहता था । उसे सुभद्रा नाम से पत्नी और चारूदत्त नामक पुत्र था । चारूदत्त यौवन बना फिर भी साधु के समान निर्विकारी मन वाला वह विषय का नाम भी नहीं चाहता था । तो फिर उसे भोग की बात ही कैसे होती ? इसलिए माता, पिता ने उसके विचार बदलने के लिए उसे दुर्व्यसनिय मित्रों के साथ में जोड़ा, फिर उन मित्रों के साथ में रहता वह विषय की इच्छा वाला बना । इससे वसन्त सेना वेश्या के घर बारह वर्ष तक रहा और उसने उसमें सारा धन नाश किया। फिर वेश्या की माता ने उसे घर से निकाल दिया । वह घर गया, और वहाँ माता-पिता की मृत्यु हो गई, ऐसा सुनकर अति दुःखी हुआ, अत: व्यापार की इच्छा से पत्नी के आभूषण लेकर वह मामा के साथ उसीरवृत्त नामक नगर में गया । वहाँ से रुई खरीदकर तामलिप्ती नगर की ओर चला और बीच में ही दावानल लगने से रुई जल गई। फिर घबड़ाकर उस मामा को छोड़कर जल्दी घोड़े पर बैठकर पूर्व दिशा में भागा और वह प्रियंगु नगर में पहुँचा । वहाँ पर सुरेन्द्र दत्त नामक उसके पिता के मित्र ने उसे देखा और पुत्र के समान उसे बड़े प्रेम से बहुत समय तक अपने घर में रखा । फिर सुरेन्द्र दत्त के जहाज भरकर धन कमाने के लिए अन्य बन्दरगाह में जाकर चारूदत्त ने आठ करोड़ धन प्राप्त किया । वहाँ से वापिस आते उसके जहाज समुद्र में नष्ट हो गये और चारूदत्त को महा मुसीबत से एक लकड़ी का तख्ता मिला और उसके द्वारा उस समुद्र को पार कर मुसीबत से राजपुर नगर में पहुँचा । वहाँ उसे सूर्य समान तेजस्वी एक त्रिदण्डी साधु मिले । उस साधु ने उससे पूछा कि तू कहाँ
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy