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________________ ४८२ श्री संवेगरंगशाला से विवाह करने की भावना थी, परन्तु 'एक पत्नी होने से दूसरी पत्नी नहीं मिलेगी इसलिए इस पत्नी को किस तरह खतम करना चाहिए' ऐसा सोचकर एक दिन काले सर्प को घड़े में बन्द कर घर में रख दिया फिर भोजन करके उसने उस श्राविक से कहा कि - भद्रे ! उस स्थान पर घड़े के अन्दर पुष्प की माला है वह मुझे लाकर दे । पति की आज्ञा से उसने घर में प्रवेश किया और उसमें अन्धकार होने से श्री पन्च नमस्कार का स्मरण करते उसने पुष्पमाला के लिए उस घड़े में हाथ डाला, उसके पहले ही एक देवी ने सर्प का अपहरण किया और अति सुगन्धमय विकसित श्वेत पुष्पों की श्रेष्ठ माला उस स्थान पर रख दी । श्राविका उसे लेकर पति को अर्पण की, इससे घबड़ा कर वहाँ जाकर उसने घड़ा देखा, परन्तु सर्प को नहीं देखा तब 'यह महा प्रभावशाली है' ऐसा मानकर पैरों में गिरकर अपनी सारी बात कही और क्षमा याचना करने श्राविका को अपने घर के स्वामीत्व पद पर स्थापन किया । इस तरह इस लोक में नमस्कार मन्त्र अर्थ काम का साधक है, परलोक में भी यह नमस्कार मन्त्र हुन्डिका यक्ष के समान सुखदायक होता है । वह इस प्रकार :-- हुन्डिका यक्ष का प्रबन्ध मथुरा नगरी में लोगों की हमेशा चोरी करने वाला हुन्डिका नाम का चोर था । उसे कोतवाल ने पकड़ा और गधे के ऊपर बैठाकर नगर में घुमाया, फिर उसे शूली पर चढ़ाया, और उससे उसका शरीर अति भेदन छेदन होने लगा । तृषा से पीड़ित शरीर वाला दुःख से अत्यन्त पीड़ित होते उसने जिनदत्त नामक उत्तम श्रावक को उस प्रदेश से जाते देखकर कहा कि-भो ! महायश ! तू दुःखियों के प्रति करूणा करने वाला उत्तम श्रावक है तो मैं अति प्यासा हूँ मुझे कहीं से भी जल्दी जल लाकर दे ! श्रावक ने कहा कि जब तक मैं तेरे लिए जल को लाता हूँ तब तक इस नमस्कार मन्त्र का बार-बार चिंतन कर । हे भद्र ! यदि तू इसको भूल जायेगा तो मेरे से लाया हुआ पानी को तुझे नहीं दूंगा । ऐसा कहने से जल के लोलुपता से वह दृढ़तापूर्वक नमस्कार मन्त्र का स्मरण करने लगा । परन्तु जिनदत्त श्रावक घर से पानी लेकर जितने में आता है उतने में नमस्कार मन्त्र का उच्चारण करते वह मर गया । और नमस्कार मन्त्र के प्रभाव से वह यक्ष रूप में उत्पन्न हुआ । इधर जिनदत्त चोर के लिए भोजन पानी लाते देखकर राज पुरुषों ने उसे पकड़ लिया और राजा के सामने उपस्थित किया। की सहायता देने वाला चोर के समान दोषित होता है राजा ने कहा कि चोर इसलिए इसे भी शूली
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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