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________________ श्री संवेगरंगशाला ४५७ नेत्रों युक्त मुख वाली और लावण्य रूपी जल का समुद्र सहश आन्ध्र प्रदेश की स्त्रियाँ होती हैं, उसमें काम भी सर्व अंग के अन्दर फैला हआ है अथवा शरीर उसका धूल से भरा हआ है और गले में लाख के मणि भी बहुत नहीं हैं, शोभा रहित है, तथापि जाट देश की स्त्रियों का रूप अति सुन्दर है, उसके रूप आकर्षण से पथिक उठ-बैठ करते रहते हैं। उसके ही किस देश की प्रशंसा या निन्दा आदि करना उसके ज्ञाताओं ने उसे नेपथ्य या वेष कथा कहा है जैसे कि विशिष्ट आकर्षक वेश से सजे अंगों वाली, विकसित नील कमल समान नेत्रों वाली और सौभाग्यरूपी जल की बावड़ी समान सुन्दर भी नारी के यौवन को धिक्कार हो ! धिक्कार हो !! कि जिसने लावण्य रूपी जल को युवा के नेत्र रूपी अंजलि से पीया नहीं है। अर्थात् युवानों को जो दर्शन नहीं देती उस वेष को धिक्कार है । इत्यादि वेष कथा है । स्त्री कथा समाप्त । (२) भक्त कथा:-यह चार प्रकार की है-१. आवाप कथा, २. निर्वाप कथा, ३. आरम्भ कथा, और ४ निष्ठान कथा। इसमें आवाप कथा अर्थात् भोजन में अमुक इतने प्रमाण में साग-सब्जियाँ, नमकीन आदि नाना प्रकार के थे और इतने प्रमाण में शुद्ध घी आदि स्वादिष्ट वस्तु का प्रयोग किया था। निर्वाप कथा उसे कहते हैं जैसे कि-उस भोजन में इतने प्रकार के व्यंजनसाग, दाल आदि थे तथा इतने प्रकार की मिठाई आदि थीं। आरम्भ कथा अर्थात् उस भोजन में इतने प्रमाण में जलचर, स्थलचर और खेचर जीवों का प्रगट रूप में उपयोग हुआ था। और निष्ठान कथा उसे कहते हैं कि उस भोजन में एक सौ, पाँच सौ, हजार अथवा अधिक क्या कहँ ? लाख रुपया से अधिक ही खर्च किया होगा इत्यादि । यह भक्त कथा है। (३) देश कथा :-इसमें भी चार भेद हैं (१) छन्द कथा, (२) विधि कथा, (३) विकल्प कथा, और (४) नेपथ्य कथा । इसमें मगध आदि देशों का वर्णन करना। छन्द अर्थात् भोग्य, अभोग्य का विवेक । जैसे कि लाट देश के लोग मामा की पुत्री का भी भोग करते हैं और गोल्ल आदि देश के लोगों को वह बहन मानने से निश्चय अभोग्य समझते हैं । अथवा औदिच्य की माता को शोक्य के समान भोग्य मानते हैं, वैसे दूसरे उसे माता तुल्य मानकर अगम्य मानते हैं, यह छन्द कथा है। प्रथम जिस देश में जो भोगने योग्य है या नहीं भोगने योग्य है, उस देश की विधि जानना और उसकी कथा करना वह देश विधि कथा कहते हैं अथवा विवाह, भोजन, बर्तन और रत्न, मोती, मणि आदि समूह की सम्भाल-रक्षा अथवा आभूषण या भूमि में मणि लगाना आदि रचना की जो विधि हो उसकी कथा करना वह विधि कथा जानना । जिसमें
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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