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________________ ४४० श्री संवेगरंगशाला अंग रूप हड्डी आदि समान होने से वह भी भक्ष्य गिना जायेगा। और यदि केवल जीव अंग की समानता मानकर इस लोक में प्रवृत्ति की जाए तो माता और पत्नी में स्त्री भाव समान होने से वे दोनों भी तुल्य योग्य होती हैं। इस तरह यह लोककृत भक्ष्याभक्ष्य की व्यवस्था कही है। अब शास्त्रकृत कहते हैं। शास्त्र लौकिक और लोकोत्तरिक इस तरह दो प्रकार का है, उसमें प्रथम लौकिक इस प्रकार से है-मांस हिंसा प्रवृत्ति करने वाला है, अधर्म की बुद्धि करने वाला है और दुःख का उत्पादक है, इसलिए मांस नहीं खाना चाहिए। जो दूसरे के मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ-वहाँ उद्वेगकारी स्थान को प्राप्त करता है । दीक्षित अथवा ब्रह्मचारी जो मांस का भक्षण करता है, वह अधर्मी, पापी पुरुष स्पष्ट-अवश्य नरक में जाता है। ब्राह्मण आकाश गामी है, परन्तु मांस भक्षण से नीचे गिरता है । इसलिए उस ब्राह्मण का पतन देखकर मांस का भक्षण नहीं करना चाहिए। मृत्यु से भयभीत प्राणियों का माँस जो इस जन्म में खाता है वह घोर नरक, नीच, तिर्यंच योनियों में अथवा हल्के मनुष्य में जन्म लेता है। जो मांस खाता है और वह मांस जिसका खाता है उन दोनों का अन्तर तो देखो। एक को क्षणिक तृप्ति और दूसरे को प्राणों से मुक्ति होती है। शास्त्र में सुना जाता है कि-हे भरत ! जो मांस खाता नहीं है वह तीनों लोक में जितने तीर्थ हैं उसमें स्नान करने का पुण्य प्राप्त करता है। जो मनुष्य मोक्ष अथवा देवलोक को चाहता है, फिर भी मांस को नहीं छोड़ता है, तो उससे उसे कोई लाभदायक नहीं है । जो मांस को खाता है तो साधु वेश धारण करने से क्या लाभ है ? और मस्तक तथा मुख को मुंडाने से भी क्या लाभ ? अर्थात् उसका सारा निरर्थक है। जो सुवर्ण का मेरू पर्वत को और सारी पृथ्वी को दान में दे, तथा दूसरी ओर मांस भक्षण का त्याग करे, तो हे युधिष्ठिर ! वह दोनों बराबर नहीं होते अर्थात् मांस त्याग पुण्य में बढ़ जाता है। और प्राणियों की हिंसा के बिना कहीं पर मांस उत्पन्न नहीं होता है और प्राणिवध करने से स्वर्ग नहीं मिलता है। इस कारण से मांस को नहीं खाना चाहिए। जो पुरुष शुक्र और रुधिर से बना अशुचि मांस को खाता है और फिर पानी से शौच करता है, उस मूर्ख की मूर्खता पर देव हँसते हैं। क्योंकि जैसे जंगली हाथी निर्मल जल के सरोवर में स्नान करके धूल से शरीर को गंदा करता है, उसके समान वह शौचकर्म और मांस भक्षण है। जो ब्राह्मणों को एक हजार कपिला गाय को दान करे और दूसरी ओर एक को जीवन दान करे, उसमें गौदान प्राणदान के सौलहवें अंश की भी कला को नहीं प्राप्त करता है। हिंसा की अनुमति देने वाला, अंगों को
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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