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श्री संवेगरंगशाला
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किसी दिन देहर्व भी कान्ति से स दिशाओं में कमल के समूह को फैलाते हो वैसे शीतलता से सभी प्राणीवर्ग के सन्ताप को शान्त करते तथा साक्षात् शरीर घाटी शीतल हो इस तरह अठारह हजार उत्तम साधुओं से युक्त और धर्म करने वाले शासन प्रभावक वर्ग के हितस्वी श्री अरिष्ट नेमि भगवन्त ग्रामानुग्राम विचरते हुए द्वारका नगरी में पधारे और रैवत नामक उद्यान में रहे। इसके बाद भगवान के पधारने का समाचर उद्यान पाल नमस्कार पूर्वक श्रीकृष्ण महाराज को दिया। फिर उन्होंने उचित तुष्टि जनक दान देकर यादवों के समूह के साथ श्रीकृष्ण श्री नेमिनाथ भगवान को वंदनार्थ निकले । हर्ष के परम प्रकर्ष से विकसित नेत्र वाले वे श्री जिनेश्वर और गणधर आदि मुनियों को नमस्कार कर अपने योग्य स्थान पर बैठे। तीन जगत के नाथ प्रभु ने देव, मनुष्य और तिर्यंचों को समझ में आए ऐसी सर्व साधारण वाणी से धर्म देशना देना प्रारम्भ किया और अनेक प्राणियों को प्रतिबोध किया। तथाविध अत्यन्त कुशल (पुण्य) कर्म के समूह से भावी में जिसका कल्याण नजदीक है उसे ढढ़ण कुमार ने भी धर्म कथा सुनकर प्रतिबोध प्राप्त किया। इससे अपकारी विकारी दुष्ट रूप दिखने वाले मित्र के समान अथवा सर्प से भयंकर घर के समान, विषय सुख को त्याग कर उस धन्यात्मा ने प्रभु के पास दीक्षा स्वीकार की। संसार की असारता का चिन्तन करते वह सदा श्रुतज्ञान का अभ्यास करते हैं और विविध तपस्या करते सर्वज्ञ परमात्मा के साथ विचरते हैं। इस तरह विचरते ढढ़ण कुमार के पूर्व जन्म में जो कर्म बन्धन किया था वह अनिष्ट फलदायक वह अन्तराय क्रर्म उदय में आया। इससे उस कर्म के दोष से वह जिस साधु के साथ भिक्षा के लिए जाता था उसकी भी लब्धी को खतम करता था अहो ! कर्म कैसे भयंकर हैं ? एक समय जब साधुओं ने उसे भिक्षा नहीं मिलने की बात कही, तब प्रभु ने मूल से लेकर उस कर्म बन्धन का वृतान्त कहा । यह सुनकर बुद्धिमान उस ढढ़ण कुमार मुनि ने प्रभु के पास अभिग्रह किया कि अब से दूसरे की लब्धि से मिला हुआ आहार मैं कदापि ग्रहण नहीं करूंगा।
____ इस तरह रणभूमि में प्रवेश करते समय सुभट के समान विषाद रहित प्रसन्न चित्तवाला दुष्कर्म रूपी शत्रुओं के दुःख को अल्प भी नहीं मानता, निर्वाण रूपी विजय लक्ष्मी को स्वीकार करके विविध प्रकार का उद्यम करते मानो अमृत रूपी श्रेष्ठ भोजन करते तृप्त बना हो इस तरह दिन व्यतीत करता था फिर एक दिन कृष्ण ने भगवान से पूछा कि-हे भगवन्त ! इन साधुओं