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________________ श्री संवेगरंगशाला ४२७ ! बाल बिखरे हुए अति वेग पूर्वक चलने से कटी प्रदेश का वस्त्र शिथिल हो गया, हाथ की अंगुलियों से पुनः स्वस्थ करते और ऊँट के बच्चे की पूँछ समान दाढ़ी मूँछ को स्पर्श करते वह देव शर्मा अरे पापी ! म्लेच्छ ! अब कहाँ जायेगा ? ऐसा बोलते वह द्वार के एक भाग को लेकर चोरों के साथ युद्ध करने लगा । तब गर्भ के महान् भार से आक्रान्त उसकी पत्नी युद्ध करते उसको रोकने लगी । फिर भी कुपित यम के समान प्रहार करते वह रुका नहीं । इससे उसके द्वारा अपने चोरों को मारते देखकर अत्यन्त गुस्से हुये दृढ़ प्रहारी ने तीक्ष्ण तलवार को खींच ब्राह्मण को और 'न मारो ! न मारो !' इस तरह बार-बार बोलती, हाथ से रोकती उन दोनों के बीच में पड़ी, ब्राह्मणी को भी काट दिया। फिर तलवार के आधार से दो भाग हुये तड़फते गर्भ को देखकर पश्चाताप प्रगट हुआ। फिर दृढ़ प्रहारी विचार करने लगा कि - हा ! हा दुःखद है, कि अहो ! मैंने ऐसा पाप किया है ? इस पाप से मैं किस तरह छुटकारा प्राप्त करूँगा ? इसके लिए क्या मैं तीर्थों में जाऊँ ? अथवा पर्वत पर जाकर वहाँ से गिरकर मर जाऊँ ? अथवा अग्नि में प्रवेश करूँ या क्या गंगा के पानी में डूब मरू । पाप की विशुद्धि के लिए अनेक विचारों से उद्विग्न मन वाले उसने एकान्त में स्थिर धर्मध्यान में तत्पर मुनि को देखा । परम आदरपूर्वक उनके चरण कमल को नमस्कार करके उसने कहा कि - हे भगवन्त ! मैं इस प्रकार का महाघोर पापी हूँ, मेरी विशुद्धि के लिये कोई उपाय बतलाओ ? मुनि ने उस सर्व पापरूपी पर्वत को चकनाचूर करने में वज्र समान और शिव सुखकारक श्रमण ( साधु ) धर्म कहा । कर्म के क्षयोपशम से उसे वह अमृत के समान अति रूचिकर हुआ और इससे संवेग को प्राप्त कर वह उस गुरू के पास दीक्षित हुआ। फिर जिस दिन उस दुश्चरित्र का मुझे स्मरण होगा उस दिन भोजन नहीं करूँगा । ऐसा अभिग्रह स्वीकार कर वह उसी गाँव में रहा । वहाँ लोग 'वह इस प्रकार के महापापों को करने वाला है' इस प्रकार बोलते उसकी निन्दा करते थे और मार्ग में जाते आते उसे मारते थे । वह सारा समतापूर्वक सहन करता था, बार-बार अपनी आत्मा की निन्दा करता था और आहार नहीं लेता, धर्म ध्यान में स्थिर रहता था । इस तरह उस धीर पुरुष ने कभी भी एक बार भी भोजन नहीं किया । इस प्रकार सर्व कर्म रज को नाश करके केवल ज्ञान प्राप्त किया । और देव, दानव तथा बाण व्यंतरों ने चन्द्र के समान निर्मल गुणों की स्तुति की, क्रमशः अगणित सुख के प्रमाण वाला निर्वाण पद को प्राप्त किया । इसे सम्यग् रूप सुनकर हे क्षपक
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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