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________________ ४२६ श्री संवेगरंगशाला बिना केवल निरपेक्ष वृत्ति से श्री जैनेश्वर भगवान आदि ने जो तप किया है वह तीन जगत में आश्चर्यकारी और अनुत्तर सुनकर कौन अनार्य अपने अल्पमात्र तप से मद करे ? अत्यन्त असाधारण बल बुद्धि से मनोहर पूर्व पुरुष तो दूर रहे, परन्तु इस प्रकार के श्रुत को नहीं जानने वाले और सामान्य रूप वाले जो दृढ़ प्रहारी मुनि थे उनकी भी तपस्या जानकर अल्प ताप का मद कौन बुद्धिशाली करे ? नहीं करता। उसका प्रबन्ध इस प्रकार है : दढ़ प्रहारी की कथा एक महान् नगरी में न्यायवंत एक ब्राह्मण रहता था, उसका दुर्दान्त नामक पुत्र हमेशा अविनय को करता था। एक दिन संताप के कारण पिता ने उसे अपने घर से निकाल दिया और घूमते हुये वह किसी तरह चोरों के गांव में पहँच गया। वहाँ पल्लीपति ने उसे देखा और पुत्र बिना उसे पूत्र बुद्धि से रखा और तलवार, धनुष्य, शस्त्र आदि चलाने की कला सिखाई। वह अपनी बुद्धिरूप धन से उसमें अत्यन्त समर्थ बना और पल्लीपति तथा अन्य लोगों का प्राण से भी प्रिय बना। निर्दय कठोर प्रहार करने से हर्षित होते पल्लीपति ने उसका गुणवाचक दृढ़ प्रहारी नाम स्थापन किया। फिर घोड़ की राल और इन्द्र धनुष्य के समान सर्व पदार्थों का विनश्वर होने से तथाविध रोग के कारण पल्लीपति मर गया। उसका मृत कार्य करके लोगों ने दृढ़ प्रहारी को उचित मानकर पल्लीपति पद पर स्थापन किया और सभी ने नमस्कार किया। महा पराक्रमी वह अपने पल्ली के लोगों का पूर्व के समान पालन पोषण करता है और निर्भयता से गाँव, खान, नगर और श्रेष्ठ शहर को लूटता था। फिर किसी दिन गाँव को लूटते वह कुशस्थल में गये। वहाँ देव शर्मा नामक अति दरिद्र ब्राह्मण रहता था। उस दिन उसके सन्तानों ने खीर की प्रार्थना करने से अत्यन्त प्रयत्न से घर-घर से भीख मांग कर चावल सहित दूध पत्नी ने लाकर दिया। उसके बाद वह खीर तैयार हो रही थी तब देव पूजा आदि नित्य क्रिया करने के लिये वह ब्राह्मण नदी किनारे गया। ___ उस समय चोर उसके घर में पहुँचे, वहाँ खीर तैयार हुई देखकर और भूख से पीड़ित एक चोर ने उसे ग्रहण की । उस खीर की चोरी होते देखकर 'हा ! हा ! लूट गये !' ऐसा बोलते बालकों ने दौड़े हुये जाकर वह देव शर्मा से कहा। इससे क्रोधित वश ललाट ऊँची चढ़ाकर विकराल भृकुटी से भयंकर मुख वाला प्रचण्ड तेजस्वी आँखों को बार-बार नचाते मस्तक के चोटी के
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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