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________________ श्री संवेगरंगशाला ४२१ को उसी के अनुसार कहा । फिर मन्त्री वर्ग के रोकने पर भी सर्व सैन्य सहित उस मल्लदेव ने प्रस्थान किया और क्रमशः उसके देश में पहुँचा, उसका आग - मन जानकर वज्रधर भी शीघ्र सामने आया और अनेक सुभटों का क्षय करने वाला परस्पर युद्ध हुआ । लोगों का क्षय होते देखकर वज्रधर ने मल्लदेव को कहलवाया कि यदि तू बल का अभिमान रखता है तो तू और मैं हम दोनों ही लड़ेंगे। उमय पक्ष के निरपराधी मनुष्यों का क्षय करने वालों का इस युद्ध से क्या लाभ है ? उसने भी यह स्वीकार किया और दोनों परस्पर युद्ध करने लगे उनके युद्ध का संघर्ष मल्लों के समान खड़े होना, नीचे गिरना, पासा बदलना, पीछे हटना इत्यादि भयंकर देव और मनुष्यों को विस्मय कारक था, फिर प्रचण्ड भुजा बल वाले वज्रधर ने उसे शीघ्रमेव हरा दिया, इस तरह बलमद रूपी यम के आधीन हुआ उसकी मृत्यु हुई । बलमद को इस प्रकार का विशेष दोष कारक जानकर हे क्षपक मुनि ! आराधना में स्थिर रहे तुझे उसका आचरण नहीं करना चाहिए । बलमद नाम का यह चौथा मद स्थान कहा है । अब पाँचवाँ श्रुत के मद स्थान को भी अल्पमात्र कहते हैं । । इस तरह हे धीर ! तुझे अल्प और जिसको सूत्र, अर्थ और ५. श्रुतमद द्वार : - निरन्तर विस्तार होने वाला महा मिथ्यात्व रूप आंधी वाला, प्रबल प्रभावाला, परदर्शन का रूप ज्योतिश्चक्र के प्रचार वाला, परम प्रमाद से भरपूर अति दुर्विदग्ध विलासी मनुष्य रूपी उल्लू समान और दर्शन के लिए प्रयत्न करते अन्य जीव समूह की दृष्टि के विस्तार को नाश करते ऐसी महाकाली रात्री समान वर्तमान काल में मैं एक ही तीन जगत रूप आकाश तल में सम्यग्ज्ञान रूपी सूर्य हूँ मात्र श्रुतज्ञान का मद नहीं करना चाहिए। तदुभय सहित चौदह पूर्व का ज्ञान होता है उनको भी यदि परस्पर छठ्ठाण आपत्ति अर्थात् वृद्धि हानि रूप तारतम्य सुना जाता है तो उसमें श्रुतमद किस प्रकार का ? उसमें और अधकालिक मुनि अथवा जिनकी मति अल्प है और श्रुत समृद्धि भी ऐसी विशिष्ट नहीं है उनको तो विशेषतः श्रुतमद कैसा हो सकता है क्योंकि वर्तमान काल में अंग प्रविष्ट, अनंग प्रविष्ट श्रुत को शुद्ध अभ्यास नहीं है, नियुक्तियों में भी ऐसा परिचय नहीं और भाष्य, चूर्णि तथा वृत्तियों में भी ऐसा परिचय नहीं है । संविज्ञ गीतार्थ और सत्क्रिया वाले पूर्व मुनियों रचित प्रकीर्णक - पयन्ना आदि में भी यदि ऐसा परिचय नहीं है तो श्रुतमद भी नहीं करना चाहिए । यदि सकल सूत्र और अर्थ में पारंगत होने पर भी श्रुतमद करना योग्य नहीं है तो उसमें पारंगत न हो फिर भी मद करना वह क्या योग्य गिना जाए ? क्योंकि कहा है कि सर्वज्ञ के ज्ञान से लेकर जीवों की बुद्धि,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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