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________________ श्री संवेगरंगशाला ४१७ तू मेरा मित्र है, आज से मेरा दुःख तुझे देकर मैं सुखी हुआ हूँ। उसके बाद धन रक्षित ने उसके समान रूप वैभव वाली कुबेर सेठ की पुत्री को दूती भेजकर कहलवाया कि-यदि तू विकल्प छोड़कर, मैं जो कहुँ उसे स्वीकार करे तो तुझे मैं कामदेव समान रूप वाला पति दूंगा । उसने कहा कि-निःशंकता से आदेश दो, मैं स्वीकार करूँगी। फिर उसने कहलवाया कि-आज रात्री में कोई भी नहीं जाने, इस तरह तू मुकुंद के मन्दिर में आ जाना, जिससे उसके साथ मैं अच्छी तरह तेरा विवाह कर दूंगा। उसने वह स्वीकार किया। फिर सूर्य अस्त होते कोयल के कण्ठ समान काला अन्धकार का समूह फैलते और प्रतिक्षण गली में मनुष्यों का संचार रहित होने पर विवाह के उचित सामग्री को उठाकर परम हर्षित मन वाला धर्म देव के साथ हव वहाँ मुकुंद के मन्दिर में गया। __ उस समय विवाह के उचित वेश धारण कर वह भी वहाँ आई, फिर संक्षेप से उनकी विवाह विधि की, फिर हर्षित हुए धनरक्षित ने दीपक को सामने रखकर कहा कि हे भद्रे ! पति को नेत्र दर्शन कर ! फिर लज्जा वश स्थिर दृष्टि वाली वह जब मुख को जरा ऊँचा करके दीपक के प्रकाश से देखने लगी तब होंठ के नीचे तक लगा हुआ बड़ा दांत वाला, अत्यन्त चपटी नाक वाला, हदपची के एक ओर उगे हुए वीभत्स कठोर रोम वाला, उल्लू के समान आँख वाला, मुख में घुसा हुआ कृश गाल वाला, तिरछी स्थिर रही धूम रेखा समान भ्रमर वाला, मसि समान श्याम कान्ति वाला उसका मुख दृष्टि से देखा । उसका मुख भी उसके उस गुण से युक्त था, केवल उससे रोम रहित का ही भेद था। दाढ़ी मूंछ या शरीर पर रोम नहीं थे। फिर शीघ्र गरदन घुमाकर अपना मुख उल्टा करके उसने कहा कि-हे धन रक्षित ! निश्चय ही तूने मुझे ठगा है । कामदेव समान कहकर पिशाच समान पति को करते तूने मेरे आत्मा को यावच्चन्द्र अपयश से बदनाम किया है । धन रक्षित ने कहा कि मेरे प्रति क्रोध नहीं कर, क्योंकि-विधाता ने ही योग्य के साथ योग्य-सी जोड़ी की है, इसमें मेरा क्या दोष है ? फिर तीन क्रोध से दांत से होंठ को काटती, स्वभाव से ही श्याम मुख को सविशेष काला करती और अस्पष्ट अक्षरों से मन्द-मन्द कुछ बोलती शीघ्र हाथ से कंकणों को उतार कर विवाह नहीं हुआ हो, इस तरह वह मुकुंद मन्दिर में से निकल गई। हृदय में फैले हास्य वाला धन रक्षित ने उसे कहा कि-हे मित्र ! इतना होते हुये भी तू क्यों नहीं बोलता ? अब मैं क्या करूँ ? इससे परम सन्ताप को धारण करते उसने सरलता से कहा किभाई ? अब भी क्या बोलने जैसा है ? तू अपने घर जा, क्योंकि राक्षसी समान
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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