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________________ ४१६ श्री संवेगरंगशाला और उनका देव कुमार समान रूप लक्ष्मी से जीवों को विस्मित करते वसुदेव नाम का मुख्य पुत्र था। दूसरा स्कंदक नाम का पुत्र डरपोक नेत्रों वाला ठिगना शरीर वाला था। अधिक क्या कहें सारे कद् रूप वालों में वह उदाहरण रूप था। उनका लोकोत्तर सुन्दर रूप वाला और कद्रुप वाला सुनकर कुतूहल से व्याकुल लोग दूर-दूर से उनको देखने के लिए आते थे। इस तरह समय व्यतीत होते एक दिन अवधि ज्ञानी विमल यश नाम के आचार्य वहाँ पधारे । उनका आगमन जानकर राजा आदि नगर निवासी और उस धनपति के दो पुत्र भी वंदन के लिए आए । गाढ़ भक्ति राग को धारण करते वे बार-बार प्रदक्षिणा देकर आचार्य श्री के चरणों में नमन करके अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठे। फिर धर्मकथा करते आचार्य श्री की दृष्टि अभीवृष्टि के समान किसी तरह उस धनपति के पुत्रों पर पड़ी। उस समय ज्ञान रूपी चक्षु से उनके पूर्वभव को देखते कुछ प्रसन्न बने गुरू महाराज ने कहा कि-अरे ! कर्म का दुष्ट विलास भयंकर है। क्योंकि-निरूपम रूप वाला भी विरूप बनता है और वही विरूपी पूनः कामदेव के रूप की उपमा को प्राप्त करता है। बाद में विस्मित पूर्वक पर्षदा के लोगों ने नमस्कार करके कहा कि-हे भगवन्त ! इस विषय में तत्व के रहस्य को बतलाएं, हमें जानने की बहुत इच्छा है । तब गुरूदेव ने कहा कि-आप सब सावधान होकर सुनो : धनपति के ये दो पुत्र तामलिप्ती नगरी में धनरक्षित और धर्मदेव नाम के दो मित्र थे। उसमें प्रथम धनरक्षित रूपवान और दूसरा धर्मदेव अति विरूप था। दोनों परस्पर क्रीड़ा करते थे, परन्तु धनरक्षित रूपमद से लोग समक्ष धर्मदेव की अनेक प्रकार की हांसी करता था। एक समय धनरक्षित ने धर्मदेव को कहा कि हे भद्र ! पत्नी के बिना सारा गृहवास का राग निष्फल है। इसलिए स्त्री के विवाह से विमुख तू बेकार क्यों दिन गंवा रहा है ? यदि इस तरह भी अविवाहित रहने की इच्छा है तो साधु बन जा। सरल स्वभाव से उसने कहा कि मित्र ! यह सत्य है, परन्तु संसार में स्त्री की प्राप्ति में दो हेतु होते हैं एक मनुष्य के मन को हरण करने वाला रूप अथवा अति विशाल लक्ष्मी हो, ये दोनों भी दुर्भाग्यवश मुझे नहीं मिली हैं। फिर भी अब ऐसी बुद्धि द्वारा स्त्री की प्राप्ति यदि सम्भव हो जाए तो वह तू ही बतला, तुझे दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ। उसके ऐसा कहने से धनरक्षित ने कहा कि हे मित्र ! तू निश्चित रह, इस विषय में मैं सम्भाल लूंगा। धन, बुद्धि, पराक्रम, न्याय से अथवा अन्याय से अधिक क्या कहूँ ? किसी तरह भी तेरे वांछित अर्थ को सिद्ध करूँगा। उसने कहा कि कुछ भी कर ! निष्कपट प्रेम वाला
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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